Book Title: Jain Shabda Kosh
Author(s): Ratnasensuri
Publisher: Divya Sanesh Prakashan

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Page 60
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 480. नारक :- संसार में परिभ्रमण कर रही आत्मा की चार गतियाँ हैं, उनमें एक गति नरक गति है । नरक गति में रहनेवाला नारक कहलाता ___481. नाराच संघयण :- संघयण अर्थात् हड्डियों की रचना । छह प्रकार के संघयण में तीसरे संघयण का नाम नाराच संघयण है । नाराच अर्थात् मर्कट बंध | इसमें दो हड्डियाँ परस्पर एक दूसरे को विंटला कर रहती 482. नास्तिक :- आत्मा, कर्म, परलोक, परमात्मा आदि के अस्तित्व को नहीं माननेवाला नास्तिक कहलाता है । 483. निकाचित कर्म :- अत्यंत गाढ़ अध्यवसाय से बँधा हुआ ऐसा कर्म , जिसकी सजा आत्मा को अवश्य भुगतनी ही पड़ती है | 484. निमित्त कारण :- किसी भी कार्य की उत्पत्ति में मुख्य दो कारण काम करते हैं 1) उपादान कारण और 2) निमित्त कारण ! 1) जो कारण, स्वयं कार्यरूप में परिणत होता हो, उसे उपादान कारण कहते हैं । जैसे - मिट्टी, यह घड़े का उपादान कारण है, क्योंकि मिट्टी ही घड़ा बनती है । 2) जो कारण, कार्य की उत्पत्ति में सहायक बनते हैं, उन्हें निमित्त कारण कहते हैं । जैसे - घड़े को बनाने में कुंभार आदि निमित्त कारण हैं | 485. निह्नव :- प्रभु के वचन का उत्थापन कर, अपनी बुद्धि के अनुसार पदार्थ का निरूपण करनेवाले । महावीर प्रभु के शासन में जमाली आदि नौ निह्नव हुए हैं । एक जिनवचन से विपरीत प्ररूपणा करने के कारण वे सभी निह्नव सम्यग् दर्शन से भ्रष्ट हो जाते हैं। 486. न्यासापहार :- किसी के द्वारा रखी गई अमानत का अपहरण कर लेना न्यासापहार है । यह भी मृषावाद का ही एक भेद है । 487. नैगम नय :- नय अर्थात् किसी भी वस्तु को समझने का एक दृष्टिकोण ! नय सात हैं | उसमें सबसे पहला नय नैगम नय है । नैगम नय वस्तु में भिन्न भिन्न रूप से रहे अनेक पर्यायों को , धर्मों को स्वीकार करता है । लोकरीति और उपचरित वस्तु को भी ग्रहण करता है। न48b= For Private and Personal Use Only

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