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आध्यात्मिक विकास की दृष्टि से पाँच प्रकार के साधुओं में चौथे प्रकार के साधु निग्रंथ कहलाते हैं । जहाँ राग - द्वेष का सर्वथा अभाव हो ! उपशम श्रेणी में 11 वें उपशांत मोह गुणस्थानक में रही आत्मा तथा क्षपक श्रेणी में क्षीणमोह - 12 वें गुणस्थानक में रही आत्मा निग्रंथ कहलाती है।
461. निर्जरा :- आत्मा पर लगे हुए कर्मों के आंशिक अथवा संपूर्ण क्षय को निर्जरा कहते हैं । यह निर्जरा दो प्रकार की है
1) अकाम निर्जरा :- अनिच्छापूर्वक कष्ट आदि के सहन करने से जो निर्जरा होती है, उसे अकाम निर्जरा कहते हैं ।
2) सकाम निर्जरा :- इच्छा व प्रसन्नता पूर्वक कष्ट सहन करने से जो निर्जरा होती है, उसे सकाम निर्जरा कहते हैं।
462. निरतिचार :- ग्रहण किए व्रत में जो दोष लगते हैं, उसे अतिचार कहते हैं । अतिचार रहित व्रतपालन को निरतिचार कहा जाता है ।
463. निरंजन-निराकार :- जिस आत्मा पर कर्म का लेश भी दाग न हो, वे निरंजन कहलाते हैं और जो आकार रहित हैं, वे निराकार कहलाते हैं । सिद्ध भगवंत निरंजन - निराकार है ।
464. निरामिष आहार :- मांस रहित भोजन को निरामिष आहार कहते हैं।
465. निरालंबन ध्यान :- जिस ध्यान में मूर्ति आदि किसी भी बाह्य पदार्थ का आलंबन नहीं लिया जाता है, उसे निरालंबन ध्यान कहते हैं ।
466. निर्ममभाव :- जिसमें बाह्य पदार्थों के प्रति ममता भाव न हो, उसे निर्मम भाव कहते हैं ।
467. निराशंस भाव :- जो धर्म एक मात्र मोक्ष के उद्देश्य से ही किया जाता हो, जिसमें सांसारिक सुख की लेश भी अभिलाषा न हो , उसे निराशंस भाव कहते हैं।
_____468. निरुपक्रम आयुष्य :- जिस आयुष्य पर किसी भी प्रकार का उपक्रम - उपघात नहीं लगता हो, उसे निरुपक्रम आयुष्य कहते हैं । तीर्थंकर आदि तिरसठ शलाका पुरुषों का निरुपक्रम आयुष्य होता है |
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