Book Title: Jain Shabda Kosh
Author(s): Ratnasensuri
Publisher: Divya Sanesh Prakashan

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Page 57
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir निगोद दो प्रकार की है - सूक्ष्म और बादर | जो आँखों से दिखाई देती है, उसे बादर निगोद कहते हैं और जो आँखों से अदृश्य होती है, उसे सूक्ष्म निगोद कहते हैं। सूक्ष्म निगोद के जीव भी दो प्रकार के होते हैं 1) अव्यवहार राशि के जीव : जो जीव सूक्ष्मनिगोद में से एक भी बार बाहर नहीं निकले हों, वे अव्यवहार राशि के जीव कहलाते हैं । 2) व्यवहार राशि के जीव : जो जीव निगोद में से बाहर निकलकर अन्य गति में जाकर वापस निगोद में पैदा हुए हों, वे व्यवहार राशि के जीव कहलाते हैं | 457. निदान शल्य :- वर्तमान में किए गए धर्म के फलस्वरूप परलोक में राजा, चक्रवर्ती आदि पद अथवा धन आदि की प्राप्ति का संकल्प करना, उसे निदान शल्य कहते हैं | शल्य की तरह आत्मा के लिए हानिकारक होने से इस निदान को शल्य कहते हैं । यह निदान (नियाणा) दो प्रकार से होता है 1) रागजन्य- जैसे-'अगले जन्म में मैं स्त्रीवल्लभ बनूँ'-कृष्ण के पिता वसुदेव ने पूर्वभव में यह नियाणा किया था । 2) द्वेष जन्य- 'प्रतिभव में मैं उसका हत्यारा बनूँ' - अग्निशर्मा तापस ने द्वेष में आकर गुणसेन राजा के प्रति यह नियाणा किया था । ___458. नवकारसी :- सूर्योदय से 48 मिनिट बीतने पर यह पच्चक्खाण आता है, तब तक चारों प्रकार के आहार का त्याग किया जाता है । यह दिन संबंधी पच्चक्खाणों में सबसे छोटा पच्चक्खाण है | 459. नियति :- जो होनेवाला है, वो ही होता है, उसे नियति कहते हैं । उसे भवितव्यता भी कहते हैं । कोई भी घटना बनती है, उसमें मुख्यतया काल, स्वभाव , भवितव्यता (नियति), कर्म और पुरुषार्थ रुप पाँच कारण काम करते हैं । उनमें नियति अर्थात् भवितव्यता भी एक कारण है । 460. निग्रंथ :- निग्रंथ शब्द के अनेक अर्थ होते हैं । निग्रंथ अर्थात् साधु ! जो बाह्य और अभ्यंतर ग्रंथि से रहित हैं, वे निग्रंथ कहलाते हैं | धनधान्य आदि के प्रति आसक्ति अभ्यंतर ग्रंथि है तथा बाहर कपड़ों में गाँठ आदि होना, बाह्य ग्रंथि है । इन दोनों ग्रंथियों से जो रहित होते हैं वे निग्रंथ कहलाते -6450 For Private and Personal Use Only

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