Book Title: Jain Shabda Kosh
Author(s): Ratnasensuri
Publisher: Divya Sanesh Prakashan

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Page 52
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1) लकड़ी को भी दंड कहते हैं | 2) मन, वचन और काया की अशुभ प्रवृत्ति को भी मन दंड, वचन दंड और काया दंड कहते हैं । 3) चक्रवर्ती के एक रत्न को भी दंड रत्न कहते हैं। 4) किसी गुनाह के बदले जो सजा दी जाती है, उसे भी दंड कहते हैं | 406. दंडक :- जिससे आत्मा दंडित हो, उसे दंडक कहते हैं | चार प्रकरण में एक दंडक सूत्र है, जिसमें 24 द्वार बतलाए हैं । 407. दंशमशक परिषह जय :- मक्खी , मच्छर आदि के डंक को समतापूर्वक सहन करना, उसे दंशमशक परिषह जय कहते हैं । 408. दानांतराय कर्म :- अंतराय कर्म के 5 भेदों में सबसे पहला भेद दानांतराय कर्म है | दान में होनेवाले अंतराय को दानांतराय कर्म कहते हैं । स्वयं के पास करोड़ों की संपत्ति होने पर भी इस कर्म के उदय के कारण व्यक्ति थोड़ा भी दान नहीं कर पाता है । 409. दीक्षा :- मोह माया के बंधनों को तोड़ना, उसे दीक्षा कहते हैं । 410. दीक्षा कल्याणक :- तारक तीर्थंकर परमात्मा संसार का त्यागकर जब भागवती-दीक्षा अंगीकार करते हैं, उसे दीक्षा कल्याणक कहते हैं । 411. दुषम सुषमा :- अवसर्पिणी काल के चौथे आरे का नाम दुषम सुषमा है । इस आरे में तीसरे आरे की अपेक्षा दुः ख ज्यादा और सुख कम होता है। 412. दुष्कृत गरे :- अपने जीवन में हए पापों की निंदा करना उसे दुष्कृत गर्दा कहते हैं। _. 413. दिव्यध्वनि :- केवलज्ञान की प्राप्ति के बाद तारक तीर्थंकर परमात्मा के जो आठ प्रातिहार्य होते हैं, उनमें एक दिव्यध्वनि है । परमात्मा जब देशना देते हैं, तब देवता वाद्य यंत्र बजाकर स्वर में स्वर पूरते हैं । 414. दुषम काल :- अवसर्पिणी काल के 5 वें आरे का नाम दुषम काल है, इस काल में दुःख की प्रधानता - प्रबलता होती है | 415. दुषम दुषम काल :- अवसर्पिणी काल के छठे आरे का नाम दुषम दुषम काल है । इस काल में अत्यधिक प्रमाण में दुःख होता है | 400= For Private and Personal Use Only

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