Book Title: Jain Shabda Kosh
Author(s): Ratnasensuri
Publisher: Divya Sanesh Prakashan

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Page 50
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 392. त्रस नाड़ी :- चौदह राजलोक के बीच में ऊपर से नीचे तक नाड़ी आई हुई है, जो 1 राजलोक विस्तृत और 14 राजलोक लंबी है । सभी त्रस जीव इसी त्रस नाड़ी में पैदा होते हैं । - 393. तैजस शरीर :- शरीर 5 हैं औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस और कार्मण ! इनमें चौथा शरीर तैजस शरीर है । यह शरीर सभी जीवों में अवश्य होता है। यह शरीर बाह्य शरीर को कांति और उष्णता प्रदान करता है । खाये हुए भोजन को भी पचाने का काम यही शरीर करता है । 394. त्रिपदी :- तारक तीर्थंकर परमात्मा गणधर भगवंतों को 'उपन्नेइ वा विगमेइ वा धुवेइ वा' - यह त्रिपदी प्रदान करते हैं । इस त्रिपदी का श्रवण कर बीज बुद्धि के निधान गणधर भगवंत समग्र द्वादशांगी की रचना करते हैं । 395. त्रिषष्टि शलाका पुरुष :- तिरसठ उत्तम पुरुष । इस अवसर्पिणी काल में 24 तीर्थंकर, 12 चक्रवर्ती, 9 वासुदेव, 9 प्रतिवासुदेव और 9 बलदेवये 63 उत्तम पुरुष पैदा हुए है । 396. तीर्थंकर नाम कर्म :- जगत् के जीव मात्र के कल्याण की कामना से आत्मा तीर्थंकर नाम कर्म का बंध करती है। इस कर्म की निकाचना पूर्व के तीसरे भव में करती है । इस कर्म की निकाचना के बाद तीसरे भव में वह आत्मा तीर्थंकर बनकर मोक्ष में जाती है । विरल आत्माएँ ही तीर्थंकर पद प्राप्त करती हैं । इस कर्म के उदय से आत्मा में अनेक प्रकार की विशेषताएँ प्राप्त होती हैं । उन आत्माओं में 34 अतिशय पैदा होते हैं । | भरत और ऐरावत क्षेत्र में एक उत्सर्पिणी और एक अवसर्पिणी काल में 24-24 तीर्थंकर पैदा होते हैं । 5 महाविदेह में जघन्य से 20 और उत्कृष्ट से 160 तीर्थंकर पैदा होते हैं । वहाँ उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल जैसी व्यवस्था नहीं है । 397. तीन छत्र :- तीर्थंकर परमात्मा जब समवसरण में बिराजमान होते हैं, तब उनके ऊपर देवतागण त्रिभुवन के साम्राज्य के प्रतीक रूप तीन छत्र रखते हैं । 398. तीन गढ़ :- देवतागण जिस समवसरण की रचना करते हैं, उसके तीन गढ़ होते हैं । नीचे से पहला गढ़ चांदी का दूसरा गढ़ सोने का और तीसरा गढ़ रत्नों का होता है। ये तीन गोलाकार अथवा अष्टकोणीय होते हैं । 1 38 For Private and Personal Use Only

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