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शत्रुजय, शंखेश्वर आदि स्थावर तीर्थ कहलाते हैं । साधु साध्वी आदि जंगम तीर्थ कहलाते हैं ।
___381. तिर्छा लोक :- 14 राजलोक रूप इस विश्व के मध्य में ति लोक आया हुआ है । इसका विस्तार एक राजलोक प्रमाण है और इसकी ऊँचाई 1800 योजन प्रमाण है।
382. तिविहार :- अशन, पान, खादिम और स्वादिम रूप चार प्रकार के आहार में से तीन प्रकार के आहार के त्याग को तिविहार कहते हैं । इसमें पानी को छोड़कर अन्य तीन आहार का त्याग किया जाता है।
383. तीर्थंकर :- भव सागर से पार उतरने के लिए जो तीर्थ की स्थापना करते हैं, उन्हें तीर्थंकर कहते हैं । साधु - साध्वी श्रावक और श्राविका रूप चतुर्विध संघ को तीर्थ कहते हैं ।
384. तीर्थसिद्ध :- तीर्थ की स्थापना हो जाने के बाद जो आत्माएँ मोक्ष में जाती हैं, उन्हें तीर्थसिद्ध कहा जाता है ।
385. तेजोलेश्या :- 1) विशिष्ट प्रकार की तपसाधना के द्वारा आत्मा में उत्पन्न होनेवाली लब्धि विशेष को तेजोलेश्या कहते हैं । यह तेजोलेश्या जिस पर छोड़ी जाय उसे जलाकर भस्मीभूत कर देती है।
गोशाला ने भगवान महावीर पर तेजोलेश्या छोड़ी थी । उस तेजोलेश्या के प्रभाव से सुनक्षत्र और सर्वानुभूति मुनि जलकर भस्मीभूत हो गए थे।
2) छह प्रकार की लेश्याओं में चौथी लेश्या तेजोलेश्या है । यह शुभ लेश्या है।
386. तत्त्वत्रयी :- सुदेव, सुगुरु और सुधर्म को तत्त्वत्रयी कहा जाता है । 387. तमस्तमः प्रभा :- सातवी नरक पृथ्वी का गोत्र ।
388. त्रिक :- तीन-तीन वस्तुओं के समूह को त्रिक कहते हैं । जिन मंदिर में दश त्रिक का पालन करना होता है ।
389. तेउकाय :- अग्निस्वरूप जीवों को तेउकाय कहते हैं ।
390. त्रिकालज्ञानी :- भूत, भविष्य और वर्तमान का जिन्हें पूर्णज्ञान हो उन्हें त्रिकालज्ञानी कहते हैं ।
391. त्रिकरणयोग :- मन, वचन और काया के योग को त्रिकरण योग कहते हैं।
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