Book Title: Jain Shabda Kosh
Author(s): Ratnasensuri
Publisher: Divya Sanesh Prakashan

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Page 53
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 416. दृष्टिराग :- अपने मिथ्यामत के तीव्रराग को दृष्टिराग कहते हैं । दृष्टिराग में अंध बने व्यक्ति को दूसरे सत्य मत की बात अच्छी नहीं लगती 417. देशविरति :- हिंसा आदि पापों के आंशिक त्याग की प्रतिज्ञा को देशविरति कहते हैं । श्रावक के 12 व्रत देशविरति रूप कहलाते हैं । 418. दैवसिक प्रतिक्रमण :- दिवस संबंधी पापों की आलोचना रूप जो प्रतिक्रमण किया जाता है उसे दैवसिक प्रतिक्रमण कहते हैं । इस प्रतिक्रमण से दिवस संबंधी पापों का नाश होता है। 419. द्रव्यलिंग :- बाह्य वेष को द्रव्यलिंग कहते हैं । ___420. द्रव्यार्थिक नय :- प्रत्येक द्रव्य में सामान्य और विशेष धर्म रहे हए हैं । वस्तु में रहे सामान्य धर्म को आगे कर जो नय विचार करता है, वह द्रव्यार्थिक नय है। _421. देवदूष्य :- तीर्थंकर परमात्मा जब दीक्षा अंगीकार करते हैं, तब इन्द्र महाराजा उनके बाएँ स्कंध में दिव्य वस्त्र रखते हैं, जिसे देवदूष्य कहते 422. द्रव्य कर्म :- कर्म रूप में परिणत हुए कार्मण वर्गणा के पुद्गलों को द्रव्य कर्म कहते हैं। 423. द्वेष :- अप्रीति , वैरभाव, तिरस्कार भाव । 424. द्वीप :- जिस भूमि के चारों ओर समुद्र हो, उसे द्वीप कहते हैं। जंबुद्वीप के चारों ओर लवणसमुद्र है । 425. दर्शन मोहनीय कर्म :- जिस कर्म के उदय से आत्मा सम्यग् दर्शन प्राप्त नहीं कर पाती है अथवा प्राप्त सम्यग् दर्शन से भ्रष्ट बनती है । इस कर्म का उदय सम्यक्त्व की प्राप्ति में बाधक बनता है | ____426. दर्शनोपयोग :- वस्तु में रहे सामान्यधर्म को देखने में जो उपयोग होता है, वह दर्शनोपयोग कहलाता है | 427. दिक परिमाणवत :- श्रावक के 12 व्रतों में पाँच अणुव्रतों के बाद जो तीन गुणव्रत हैं, उसमें पहला गुणव्रत दिक् परिमाणव्रत है । इस व्रत द्वारा श्रावक चारों दिशाओं में जाने - आने का परिमाण निश्चित करता है । =6410 For Private and Personal Use Only

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