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अरिहंत, सिद्ध, साधु और केवली प्ररूपित धर्म !
328. चैत्य :- जिनमंदिर या जिनप्रतिमा ।
329. चिरंतन :- प्राचीन |
327. चत्तारि मंगलं :- इस जगत् में चार वस्तुएँ मंगल स्वरूप हैं ।
330. चंद्रप्रज्ञप्रि :- बारह उपांगों में से एक उपांग सूत्र, जिसमें चंद्र आदि के विषय में विस्तृत जानकारी है ।
331. च्यवन कल्याणक :- तारक तीर्थंकर परमात्मा के पाँच कल्याणक होते हैं, उनमें पहला कल्याणक, च्यवन कल्याणक है । अपने अंतिम भव के पूर्व देवलोक में से अपने आयुष्य को पूर्ण कर जब माँ की कुक्षि में आते हैं, उसे च्यवन कल्याणक कहते हैं, उस समय माता चौदह महास्वप्न देखती है ।
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332. चातुर्मासिक प्रतिक्रमण :- चार मास में एक बार जो प्रतिक्रमण किया जाता है, वह चातुर्मासिक प्रतिक्रमण कहलाता है । कार्तिक, फाल्गुन और आषाढ़ मास में शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी के दिन यह प्रतिक्रमण होता है । 333. चारित्राचार :- पांच आचारों में से एक आचार | चारित्राचार के आठ भेद है-पांच समिति और तीन गुप्ति ।
334. चैत्य परिपाटी :- पर्युषण के पांच कर्तव्यों में पांचवा कर्तव्य ! गांव में जितने मंदिर है । उनके दर्शनार्थ संघ सहित समूह में जाना ।
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335. छद्मस्थ अवस्था :- दीक्षा अंगीकार करने के बाद जब तक अरिहंत परमात्मा को केवलज्ञान की प्राप्ति नहीं होती है, तब तक परमात्मा की छद्मस्थ अवस्था कहलाती है ।
336. छेदोपस्थापनीय :- पाँच प्रकार के चारित्र में दूसरे क्रम का चारित्र ! भागवती दीक्षा अंगीकार करते समय सामायिक चारित्र होता है । उसके बाद जब बड़ी दीक्षा होती है, तब पूर्व पर्याय का छेद होने के कारण उसे छेदोपस्थापनीय चारित्र कहते हैं ।
337. छंदणा :- गोचरी वहोरकर लाने के बाद गुरु आदि को आमंत्रण देना, उसे छंदणा कहते हैं ।
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