Book Title: Jain Shabda Kosh
Author(s): Ratnasensuri
Publisher: Divya Sanesh Prakashan

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Page 43
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 316. चतुर्थभक्त :- आगे पीछे एकासना और बीच में उपवास का तप हो तो उस उपवास को चतुर्थभक्त कहते हैं । 317. चतुर्विधसंघ :- साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका रूप संघ को चतुर्विध संघ कहते हैं । साधु-साध्वीजी सर्वविरति के धारक होते हैं और श्रावक-श्राविका देशविरति के धारक होते हैं । 318. चारित्रपर्याय :- दीक्षित मुनि के संयमजीवन के पर्याय को चारित्र पर्याय कहते हैं । संसार का त्याग कर जब कोई मुमुक्षु दीक्षा अंगीकार करता है तबसे उसके दीक्षा पर्याय - चारित्र पर्याय की गणना होती है । 319. चलितरस :- समय बीतने पर खाद्य सामग्री के रूप, रस, गंध और स्पर्श में परिवर्तन आ जाता है । इसके फलस्वरूप उसमें जीवोत्पत्ति हो जाती है | चलितरसवाली खाद्य सामग्री अभक्ष्य कहलाती है। 320. चरमावर्ती :- जिस आत्मा का संसार परिभ्रमण एक पुद्गल परावर्त काल से अधिक न हो, उसे चरमावर्ती कहते हैं | उस काल के बाद उस आत्मा का अवश्य ही मोक्ष होता है । 321. चरम शरीरी :- मोक्ष में जाने के पूर्व आत्मा जिस शरीर में हो, वह चरम शरीर कहलाता है और उस शरीरधारी आत्मा को चरमशरीरी कहते हैं। 322. चर्या परिषह :- साधु जीवन में विहार आदि में पत्थर-कंकड़ आदि के जो कष्ट सहन करने के होते हैं, उसे चर्या परिषह कहते हैं । संयम जीवन में कर्मों की निर्जरा के लिए सहनकरने योग्य कुल 22 परिषह हैं। 323. चामर :- तारक तीर्थंकर परमात्मा के आठ प्रातिहार्यों में एक चामर प्रातिहार्य है । प्रभु जब समवसरण में बिराजमान होते हैं, तब देवतागण . उनके दोनों ओर चामर वींजते हैं । 324. चूलिका :- नवकार महामंत्र में 'एसो पंच नमुक्कारो आदि चार पदों को चूलिका कहते हैं। ___325. चारित्र मोहनीय :- चारित्र की प्राप्ति व पालन में अंतराय करनेवाले कर्म को चारित्रमोहनीय कर्म कहते हैं | 326. चतुरंगी सेना :- जिस सेना में चार अंग होते हैं उसे चतुरंगी सेना कहते हैं । जैसे - हस्तिदल , अश्वदल, स्थदल और पैदल । = 310 For Private and Personal Use Only

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