Book Title: Jain Shabda Kosh
Author(s): Ratnasensuri
Publisher: Divya Sanesh Prakashan

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Page 33
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 230. ओघदृष्टि :- सामान्य मानवी की दृष्टि को ओघदृष्टि कहते हैं जिसमें लंबा विचार नहीं होता है । 231. ओघा :- रजोहरण । साधु का यह मुख्य चिह्न है । 232. औत्पातिकी बुद्धि :- घटना बनते ही तत्काल जवाब सूझ जाय , उसे औत्पातिकी बुद्धि कहते हैं । पहले कुछ भी देखा - सुना न हो फिर भी तुरंत जवाब सूझ जाता है । 233. औदयिक भाव :- कर्म के उदय से होनेवाले आत्मपरिणाम को औदयिक भाव कहते हैं। इसके 21 भेद हैं-चार गति, चार कषाय, तीन लिंग, मिथ्यादर्शन, अज्ञान, असंयम, असिद्धभाव और छह लेशाएँ । 234. औदारिक शरीर :- औदारिक वर्गणा के पुद्गलों से बने शरीर को औदारिक शरीर कहते हैं। 235. औदारिक वर्गणा :- पुद्गलों की वह वर्गणा जो भविष्य में औदारिक शरीर के रूप में परिणत होती है ।। ____ 236. औपशमिक चारित्र :- समस्त मोहनीय कर्म के उपशम से औपशमिक चारित्र होता है । मोहनीय कर्म की अनंतानुबन्धी , अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान, संज्वलन क्रोध मान, माया, लोभ ये 16 कषाय, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुष वेद और नपुंसक वेद ये नौ नोकषाय, ये चारित्र मोह के विकल्प हैं । मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यकत्व प्रवृत्ति के भेद से दर्शन मोहनीय के तीन भेद हैं | मोहनीय कर्म के इन 28 विकल्पों के उपशमन से आत्मपरिणामों की जो निर्मलता होती है, उसे औपशमिक चारित्र कहते हैं । 237. औपपातिक सूत्र :- पहले उपांग का नाम है । न 21 For Private and Personal Use Only

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