Book Title: Jain Shabda Kosh
Author(s): Ratnasensuri
Publisher: Divya Sanesh Prakashan

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Page 32
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 218. ऋजुता :- सरलता | मन में माया - कपट का अभाव । 219. ऋद्धिगौरव :- पुण्योदय से प्राप्त संपत्ति का अहंकार । 220. ऋणानुबंध :- पूर्व भव के संबंधों के कारण इस भव में होनेवाला रागात्मक संबंध । पूर्व भव का ऋणानुबंध हो तो इस भव में हुए संबंध में मेल जमता है। 221. ऋषभनाराच संघयण :- संघयण अर्थात् शरीर में हड्डियों की रचना । छह प्रकार के संघयण में यह दूसरे प्रकार का संघयण है । 222. एकत्व भावना :- बारह भावनाओं में चौथी एकत्व भावना है । 'मैं अकेला हूँ, अकेला ही आया हूँ और अकेला ही जानेवाला हूँ' : इस प्रकार के चिंतन को एकत्व भावना कहते हैं । 223. एषणा समिति :- निर्दोष आहार की प्राप्ति हेतु गोचरी संबंधी 42 दोषों को टालने का होता है । निर्दोष आहार, पानी की शोध को एषणा समिति कहते हैं। 224. एकेन्द्रिय :- जिन जीवों के सिर्फ एक ही स्पर्शन इन्द्रिय होती है, वे एकेन्द्रिय कहलाते हैं जैसे - पृथ्वीकाय, अप् काय, तेउकाय, वायुकाय और वनस्पतिकाय । - 225. एकल आहारी :- छ' री पालक यात्रा संघ में पालन करने योग्य एक नियम, इसमें एक ही बार भोजन अर्थात् एकासना होता है । 226. एकासना :- सिर्फ दिन में एक ही आसन पर बैठकर एक ही बार भोजन करना , उसे एकासना कहते हैं । 227. एकांतवाद :- कदाग्रह के वशीभूत होकर किसी भी एक नय की बात को स्वीकार कर, अन्य की बात का तिरस्कार करना, उसे एकांतवाद कहते हैं। ____ 228. एकावतारी :- सिर्फ एक ही जन्म को धारणकर जो मोक्ष में जानेवाले हों, वे एकावतारी कहलाते हैं । 229. ओघसंज्ञा :- मतिज्ञानावरणीय के क्षयोपशम से समझ बिना होनेवाली प्रवृत्ति को ओघसंज्ञा कहते हैं । जैसे लता ( बेल ) दीवार पर चढ़ती है । G20 ==== For Private and Personal Use Only

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