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161. आसन्न भव्य :- जल्दी मोक्ष में जाने के लिए योग्य जीव ।
162. आज्ञा विचय :- धर्म ध्यान का पहला भेद । जिसमें प्रभु की आज्ञा के संबंध में चिंतन-मंथन होता है।
___163. आनुगमिक :- अवधिज्ञान का एक प्रकार | जीव जहाँ जाय, वहाँ पीछे पीछे जो अवधिज्ञान साथ में चलता है वह आनुगमिक कहलाता है।
____ 164. आकाशास्तिकाय :- जैन दर्शन में प्रसिद्ध छ द्रव्यों में से एक द्रव्य ! जड़ व चेतन पदार्थ को जगह देने का कार्य, यह द्रव्य करता है |
165. आकाशगामिनी विद्या :- जिस विद्या (लब्धि) के बल से जीव आकाश में उड सकता है, उसे आकाशगामिनी विद्या कहते है । विद्याचरण मनियों के पास यह लब्धि होती है।
___166. आगम व्यवहारी :- केवलज्ञानी, चौदहपूर्वधर, दशपूर्वधर आदि के व्यवहार को आगम व्यवहारी कहा जाता है ।
167. आकुंचन प्रसारण :- शारीरिक प्रतिकूलता के कारण एकासना आदि करते समय पांव आदि को संकुचित करना अथवा फैलाना ।
____ 168. आग्नेयी :- चार विदिशाओं में से एक विदिशा अग्नि कोण (पूर्व और दक्षिण के बीच) ।
169. आज्ञाचक्र :- तंत्र शास्त्र में प्रसिद्ध दो भृकुटी के बीच के चक्र को आज्ञा चक्र कहते है।
170. आजानुबाहू :- खडे रहने पर जिनके दोनों हाथ घुटनों तक पहुँचते हो, उसे आजानुबाहु कहते है ।
___ 171. आज्ञाविचय :- चार प्रकार के धर्मध्यान में से एक धर्मध्यान जिस ध्यान में प्रभुकी आज्ञाओं के बारे में ध्यान किया जाता है ।
___ 172. आत्मा :- जीव ! जिसमें चेतना हो आत्मा कहते है । आत्मा देह व्यापी है । आत्मा के निकल जाने पर शरीर निश्चेष्ट हो जाता है।
आत्मा अरुपी है, अतः आंखों से दिखाई नहीं देती है |
173. आध्यात्मिक :- जिसमें आत्मा संबंधी विचार-विमर्श आदि हो, उसे आध्यात्मिक ज्ञान कहते है ।
174. आप्तवचन :- राग आदि दोषों से रहित सर्वज्ञ कथित आगमों को आप्तवचन कहते है।
175. आर्त्तध्यान :- शारीरिक रोग आदि की चिंता को आर्तध्यान कहते है, इस ध्यान में स्वयं के दुःखों का ही विचार होता है |
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