Book Title: Jain Shabda Kosh
Author(s): Ratnasensuri
Publisher: Divya Sanesh Prakashan

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Page 28
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 3 www.kobatirth.org 176. इन्द्रिय :- इन्द्र अर्थात् जीव । जीव को जानने के चिह्न को इन्द्रिय कहते हैं । ये इन्द्रियाँ ज्ञान और क्रिया की साधन हैं । इन्द्रियाँ पाँच हैं । 1. स्पर्शनेन्द्रिय 2. रसनेन्द्रिय 3. घ्राणेन्द्रिय 4. चक्षुरिन्द्रिय 5. श्रोत्रेन्द्रिय | 177. इत्वरकथित :- अल्पकाल के लिए । नवकारसी आदि अल्पकाल के लिए पच्चक्खाण होने से इत्वरकथित कहलाते हैं। थोड़े समय के लिए जो गुरु की स्थापना की जाती है, वह इत्वरकथित कहलाती है । चलना । 178. इष्ट :- जो मन को पसंद हो, वह इष्ट कहलाता है । 179. इन्द्रिय पर्याप्ति :- सप्त धातु रूप में परिणत पुद्गलों को इन्द्रिय के रूप में परिणत करने की शक्ति को इन्द्रिय पर्याप्ति कहते हैं । 180. ईर्या समिति :- जीवों की विराधना न हो, इस प्रकार यतनापूर्वक Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पाँच समितियों में सबसे पहली समिति ईर्या समिति है । 181. इहलोकभय :- इस लोक संबंधी भय । 182. ईहा :- मतिज्ञान का एक प्रकार | 183. ईषत् प्राग्भार :- सिद्ध शिला का नाम है। यह स्फटिक जैसी पृथ्वी है और कुछ झुकी हुई है । - 184. इक्षुकार पर्वत :- घातकी खंड और पुष्करद्वीप में दक्षिण - उत्तर की ओर आए हुए दो - दो पर्वत, जो इस द्वीप के दो भाग करते हैं । 185. इन्द्रिय सुख :- इन्द्रियों के अनुकूल विषयों की प्राप्ति से होनेवाला सुख इन्द्रियसुख कहलाता है । 186. इन्द्रिय गोचर :- इन्द्रियों से होनेवाले शब्द आदि के ज्ञान को इन्द्रिय गोचर ज्ञान कहते हैं । 16 187. ईर्या पथिकी :- ग्यारहवें बारहवें और तेरहवें गुण स्थानक में सिर्फ योग के निमित्त होनेवाले शाता वेदनीय कर्म के बंध में कारणभूत एक क्रिया । 188. ईशान कोण :- उत्तर और पूर्व के बीच रहे कोण को ईशान कोण कहते है । For Private and Personal Use Only

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