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ध्यान किया जाता है, उसे आर्तध्यान कहते हैं। इसके चार भेद हैं . ' 1 इष्ट के संयोग का चिंतन 2 अनिष्ट के वियोग का चिंतन 3 शारीरिक रोग की चिंता करना 4 परलोक में राज्य आदि की प्राप्ति का नियाणा करना ।
150. आर्जव :- सरलता । दस प्रकार के यतिधर्म में तीसरा भेद ।
151. आलोचना :- जाने-अनजाने में हुए पापों को गुरु समक्ष निवेदन करना ।
152. आवलिका :- असंख्य समयों की एक आवलिका होती है । 48 मिनिट में 1,67,77,216 आवलिकाएँ होती हैं ।
153. आवश्यक :- सुबह - शाम साधु - साध्वी, श्रावक और श्राविकाओं को अवश्य करने योग्य कर्तव्य ! आवश्यक छह हैं - 1. सामायिक 2. चउविसत्थो 3. वंदन 4. प्रतिक्रमण 5. कायोत्सर्ग 6. पच्चक्खाण |
154. आशातना :- जो अपने ज्ञान आदि गुणों का नाश करे, उसे आशातना कहते हैं । जैसे 1. ज्ञान की आशातना से ज्ञान गुण का नाश होता है । 2. परमात्मा की आशातना से दर्शन का नाश होता है | 3. धर्म की आशातना से चारित्रगुण का नाश होता है ।
155. आहारक शरीर :- चौदह पूर्वधर महर्षि अपनी आहारक लब्धि के प्रभाव से आहारक वर्गणा के पुगलों से आहारक शरीर बनाते हैं जो अन्तर्महर्त तक रहता है । यह शरीर तीर्थंकर को प्रश्न पूछने के लिए या उनकी ऋद्धि देखने के लिए आहारक लब्धिधारी चौदहपूर्वी बनाते हैं ।
156. आहार पर्याप्ति :- किसी भी जन्म को धारण करते ही आत्मा उस जन्म के योग्य शरीर बनाती है | इस शरीर का निर्माण आहार में से ही होता है । छह पर्याप्तियों में सबसे पहली पर्याप्ति आहार पर्याप्ति ही है ।
157. आस्रव :- आत्मा में कर्म के आने के द्वार को आरत्रव कहते हैं । इसके 42 भेद हैं।
158. आठ रुचक प्रदेश :- जीव के असंख्य आत्मप्रदेशों में आठ प्रदेश कर्म से सर्वथा आवरण रहित होते हैं । ये रुचक प्रदेश कहलाते हैं ।
159. आहार संज्ञा :- मोहजन्य आहार ग्रहण करने की तीव्र इच्छा को आहार संज्ञा कहते हैं ।
160. आवीचि मरण :- आयुष्य का जो समय बीत गया, वह आवीचि मरण कहलाता है । यह मरण प्रतिसमय होता रहता है । 614 =
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