Book Title: Jain Shabda Kosh
Author(s): Ratnasensuri
Publisher: Divya Sanesh Prakashan

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Page 24
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - 124. अंगपूजा :- प्रभु के शरीर का स्पर्श करके जो पूजा की जाती है उसे अंगपूजा कहते हैं | जल, चंदन और पुष्पपूजा अंगपूजा कहलाती है । 125. अंतरंग शत्रु :- आत्मा के भीतर रहे शत्रु अंतरंग शत्रु कहलाते हैं । ये शत्रु बाहर से दिखाई नहीं देते हैं | राग - द्वेष - मोह-कषाय आदि आत्मा के अंतरंग शत्रु हैं। ____126. अंडज :- अंडे से पैदा होनेवाले पंचेन्द्रिय तिर्यंच जीवों को अंडज कहते हैं। 127. अंतराय कर्म :- दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य में अंतराय पैदा करनेवाले कर्म को अंतराय कर्म कहते हैं । 128. अक्षयतृतीया :- वैशाख शुक्ला तृतीया को अक्षयतृतीया कहते हैं । दीक्षा अंगीकार करने के बाद ऋषभदेव प्रभु के 400 उपवास की दीर्घ तपश्चर्या का पारणा इस दिन हुआ था । इस दिन से इस अवसर्पिणी काल में श्रेयांसकुमार के हाथों से सुपात्रदान का शुभारंभ हुआ था । ____ 129. अचरमावर्त :- जिस आत्मा का संसार परिभ्रमण एक पुद्गल परावर्तकाल से भी अधिक बाकी हो, उसे अचरमावर्ती आत्मा कहते हैं । ___ 130. अनिकाचित कर्म :- बँधे हुए जिन कर्मों में परिवर्तन हो सकता हो वे अनिकाचित कर्म कहलाते हैं। 131. अन्यलिंग सिद्ध :- जैन साधु के वेष को छोड़कर अन्य लिंग द्वारा मोक्ष पद पानेवाले अन्यलिंग सिद्ध कहलाते हैं। ___ 132. अष्टांग योग :- योग शास्त्र में प्रसिद्ध आठ अंगवाला एक योग (आठ अंग-यम, नियम, आसन, प्राणायम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि)। 133. असंयम :- पांच इन्द्रियों के ऊपर जिसका नियंत्रण नहीं है। 134. असिधाराव्रत :- तलवार धार पर चलने के समान अत्यंत ही कठिन व्रत ! G120 For Private and Personal Use Only

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