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91. अयोगी :- मन, वचन और काया के योगों का सर्वथा अभाव हो, वह अयोगी अवस्था कहलाती है । चौदहवें गुणस्थानक का नाम अयोगी गुणस्थान है । इस गुणस्थानक का काल बहुत ही अल्प है । इस गुणस्थान के बाद आत्मा अवश्य ही मोक्षपद प्राप्त करती है |
92. अरति :- प्रतिकूल वस्तु या व्यक्ति को प्राप्तकर मन में होनेवाले उद्वेग को अरति कहते हैं ।
93. अर्थदंड :- स्वयं के जीवन निर्वाह अथवा अपने आश्रितों के जीवन निर्वाह के लिए जो हिंसा आदि पाप किए जाते हैं, वे अर्थदंड कहलाते हैं ।
94. अर्धनाराच :- छह प्रकार के संघयणों में से तीसरा संघयण । 95. अर्हद् भक्ति :- परमात्मा की भक्ति । 96. अलीक वचन :- झूठा वचन ।
97. अवधिज्ञान :- मन और इन्द्रियों की मदद बिना होनेवाला आत्म प्रत्यक्ष ज्ञान । इस ज्ञान द्वारा मर्यादित क्षेत्र में रहे पदार्थों का ज्ञान होने से इस ज्ञान को अवधिज्ञान कहते हैं ।
यह अवधिज्ञान दो प्रकार से होता है
1. भवप्रत्यय :- देव तथा नरक के जीवों को यह ज्ञान जन्म से ही होता है-उन्हें होनेवाला अवधिज्ञान भवप्रत्यय कहलाता है |
2. गुणप्रत्यय :- रत्नत्रयी की आराधना - साधना के फलस्वरूप मनुष्य तिर्यंचों को होनेवाला अवधिज्ञान गुणप्रत्यय कहलाता है ।
98. अवगाहना :- जीव जितने आकाश प्रदेशों का स्पर्श कर रहा होता है, उसे अवगाहना कहते हैं ।
99. अवसर्पिणी काल :- जिस काल में जीव के आयुष्य, ऊँचाई, बलबुद्धि आदि तथा वस्तु के शब्द, रूप, रस, गंध आदि में हानि होती जाती हो, उसे अवसर्पिणी काल कहते हैं । एक अवसर्पिणी में 10 कोडाकोड़ी सागरोपम जितना काल होता है ।
100. अवस्वापिनी निद्रा :- तीर्थंकर परमात्मा के जन्म के बाद जब इन्द्र उन्हें मेरु पर्वत पर ले जाते हैं, तब माता के पास से प्रभु को ले जाने के पूर्व इन्द्र, प्रभु की माता को अवस्वापिनी निद्रा प्रदान करते हैं | इन्द्र प्रभु
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