Book Title: Jain Shabda Kosh
Author(s): Ratnasensuri
Publisher: Divya Sanesh Prakashan

View full book text
Previous | Next

Page 19
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जाने की जरूरत नहीं रहती है । किसी पदार्थ को देखने के लिए आंख को उस पदार्थ का स्पर्श करना नहीं पड़ता है । दूर रहकर भी आँख उस पदार्थ को देख सकती है । ___75. अबाधाकाल :- किसी भी कर्म का बंध होने के साथ ही वह कर्म उदय में नहीं आता है । कुछ समय बीतने के बाद ही वह कर्म उदय में आता है, उस काल को अबाधा काल कहते हैं । जैसे कोई कर्म एक कोड़ा कोड़ी सागरोपम की स्थितिवाला बँधा हो तो वह कर्म 1000 वर्ष बीतने के बाद ही उदय में आएगा। ____76. अब्रह्म :- पुरुष स्त्री की मैथुन क्रिया को अब्रह्म कहते हैं। 77. अभव्य :- जिस आत्मा में मोक्ष में जाने की योग्यता ही न हो, उसे अभव्य आत्मा कहते हैं । 78. अभिग्रह :- मन की धारणा अनुसार एक संकल्प । यह अभिग्रह चार प्रकार का होता है - द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव । जैसे - भगवान महावीर ने अभिग्रह लिया था 1) द्रव्य से सिर्फ उड़द के बाकुले ही बहोरूंगा | 2) क्षेत्र से दाता उंबरे पर बैठा हो । 3) काल से भिक्षाकाल बीत गया है। 4) भाव से तीन दिन की उपवासी, मस्तक मुंडी हुई राजकुमारी हो, उसके हाथ - पाँव में बेड़ी हो, आँखों में आँसू हो । घर के द्वार पर बैठी हो । प्रभु का यह अभिग्रह 175 दिन के बाद पूर्ण हुआ था । 79. अभिनिवेश :- तत्त्व-अतत्त्व को जानने पर भी स्वकल्पित किसी वस्तु के झूठे आग्रह को अभिनिवेश कहते हैं । 5 प्रकार के मिथ्यात्व में एक आभिनिवेशिक मिथ्यात्व भी है । 80. अभिषेक :- प्रभु के मस्तक पर दूध - जल के प्रक्षालन को अभिषेक कहते हैं। ___81. अभ्यंतर तप :- जो तप बाहर से दिखाई नहीं देता हो उसे अभ्यंतर तप कहते हैं । इसके छह भेद हैं - 1. प्रायश्चित्त 2. विनय 3. वेयावच्च 4. स्वाध्याय 5. कायोत्सर्ग 6. ध्यान । ==670 For Private and Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102