Book Title: Jain Shabda Kosh
Author(s): Ratnasensuri
Publisher: Divya Sanesh Prakashan

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Page 18
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इस अपूर्वकरण के द्वारा आत्मा में स्थितिघात , रसघात, गुणश्रेणी, गुणसंक्रम और अन्य स्थितिबंध आदि होता है । सम्यक्त्व की प्राप्ति के पूर्व भी यह अपूर्वकरण होता है और उपशम श्रेणी और क्षपक श्रेणी में रही आत्मा भी आठवें गुणस्थान में यह अपूर्वकरण करती है। 69. अनिवृत्तिकरण :- ग्रंथि भेद के लिए तैयार हुई आत्मा की वह स्थिति जिसमें वह आत्मा सम्यक्त्व पाकर ही रहती है । ग्रंथि का भेद किये बिना वापस लौटे नहीं , ऐसी स्थिति को अनिवृत्तिकरण कहते हैं । उपशम श्रेणी और क्षपक श्रेणी के अंतर्गत नौवें गुणस्थानक का नाम भी अनिवृत्तिकरण है । अनिवृत्तिकरण में प्रविष्ट सभी आत्माओं के अध्यवसाय एक समान होते हैं। 70. अप्रतिपाती :- एक बार प्राप्त होने के बाद जो वापस नहीं जाता हो, उसे अप्रतिपाती कहते हैं । पाँचज्ञान में केवलज्ञान को अप्रतिपाती ज्ञान कहा गया है । __ अवधिज्ञान का भी एक प्रकार है, जो अवधिज्ञान आने के बाद वापस जाता न हो तथा केवलज्ञान की प्राप्ति तक रहता हो, उसे अप्रतिपाती अवधिज्ञान कहते हैं। 71. अप्रत्याख्यानीय :- जो कषाय प्रत्याख्यान - पच्चक्खाण की प्राप्ति में बाधक हो उसे अप्रत्याख्यानीय कषाय कहते हैं । इस कषाय के उदय में देशविरति की प्राप्ति नहीं होती है । इसके भी चार भेद हैं - 1 अप्रत्याख्यानीय क्रोध 2 अप्रत्याख्यानीय मान 3 अप्रत्याख्यानीय माया 4 अप्रत्याख्यानीय लोभ । 72. अप्रशस्त :- जो प्रशंसनीय न हो अर्थात् आत्मा की ऐसी प्रवृत्ति जिससे आत्मा का अहित हो । उसे अप्रशस्त प्रवृत्ति कहते हैं | 73. अप्रमत्त :- जहाँ प्रमाद का सर्वथा अभाव हो । 7 वें गुणस्थानक का नाम अप्रमत्त गुणस्थानक है । 74. अप्राप्यकारी इन्द्रियाँ :- पदार्थ का स्पर्श किये बिना जो इन्द्रियाँ पदार्थ का बोध करती हैं, उन्हें अप्राप्यकारी इन्द्रियाँ कहते हैं । चक्षु और मन अप्राप्यकारी हैं । किसी पदार्थ के चिंतन के लिए मन को उस पदार्थ के पास 66 = For Private and Personal Use Only

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