Book Title: Jain Shabda Kosh
Author(s): Ratnasensuri
Publisher: Divya Sanesh Prakashan

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Page 17
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कहते हैं । जैन आगम चार अनुयोगों में विभक्त है- 1 द्रव्यानुयोग 2 गणितानुयोग 3 चरणकरणानुयोग 4 धर्मकथानुयोग । 58. अनुष्ठान :- धार्मिक क्रिया को अनुष्ठान कहते हैं । आशय के भेद से अनुष्ठान के पाँच प्रकार हैं 1 विषानुष्ठान 2 गरल अनुष्ठान 3 अननुष्ठान " 4 तद्हेतु अनुष्ठान 5 अमृत अनुष्ठान 59. अनंतानुबंधी :- आत्मा के अनंत संसार को बढ़ानेवाले कषायों को अनंतानुबंधी कहते हैं। इसके चार भेद हैं- 1 अनंतानुबंधी क्रोध 2 अनंतानुबंधी मान 3 अनंतानुबंधी माया 4 अनंतानुबंधी लोभ । 60. अनुज्ञा :- सम्मति । उपधान और योगोद्वहन की क्रिया में अंत में सूत्र को पढ़ाने की जो अनुमति दी जाती है, उसे अनुज्ञा कहते हैं । 61. अनेकांत :- एक ही वस्तु में रहे हुए भिन्न-भिन्न धर्मों को भिन्न भिन्न दृष्टिकोण से स्वीकार करना उसे अनेकांत कहते हैं। जैसे - आत्मा नित्य भी है और अनित्य भी है । द्रव्य की अपेक्षा आत्मा नित्य है, पर्याय की अपेक्षा आत्मा अनित्य है । 62. अन्यत्व भावना :- अन्यत्व अर्थात् जुदापना ! आत्मा शरीर से भिन्न है - इस प्रकार की भावना को अन्यत्व भावना कहते हैं । 63. अप्काय :- पानी स्वरूप जीवों को अप् काय कहते हैं । अप् काय की 7 लाख योनियाँ हैं । 64. अपवर्ग :- मोक्ष | 65. अपायविचय :- धर्मध्यान का एक प्रकार है । 66. अपर्याप्त जीव : अपर्याप्त नाम कर्म के उदय के कारण जो जीव स्वयोग्य पर्याप्तियों को पूर्ण नहीं कर पाते हैं, वे अपर्याप्त जीव कहलाते हैं । 67. अपुनर्बंधक :- आत्म विकास की ऐसी भूमिका, जहाँ आत्मा मोहनीय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति (70 कोड़ाकोड़ी सागरोपम ) का अब भविष्य में कभी भी बंध नहीं करेगा, उसे अपुनर्बंधक कहते हैं । ऐसी भूमिका पर रही हुई आत्मा के कषाय मंद होते हैं । 68. अपूर्वकरण :- आत्मा में रही हुई रागद्वेष की तीव्र ग्रंथि के भेद के प्रसंग पर आत्मा में पैदा होनेवाले ऐसे शुभ अध्यवसाय, जो आत्मा में पहले कभी पैदा ही नहीं हुए हों । For Private and Personal Use Only 5 ल

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