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समस्या, अशिक्षा की समस्या, समय प्रबंधन न होने की समस्या, मंहगाई की समस्या, पानी की कमी की समस्या, बिजली की समस्या आदि। ये समस्याएं प्रत्येक के जीवन में घटित होती हैं। कहा भी गया है 'संघर्ष ही जीवन है ।' कठिनाईयों का सामना तो राम और कृष्ण जैसे अवतारों को भी करना पड़ा। भगवान् महावीर ने भी अपने साढ़े बारह वर्ष के साधनाकाल में अनेक समस्याओं का सामना किया, किन्तु जैन सिद्धांतो का प्रतिपादन करते हुए और उनका पालन करते हुए पूर्णतः तनावमुक्त हुए अर्थात मोक्ष प्राप्त किया ।
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1. तनाव का स्वरूप एवं उसके प्रभाव
तनाव शब्द को अंग्रेजी में स्ट्रेस (Stress) कहते है, जो (Latin) लेटीन शब्द (String) स्ट्रींग से बना है, जिसका अर्थ होता है, जोर से कसना या बांधना (to be drown tight).
वस्तुतः जो व्यक्ति की चेतना को चाह या चिन्ता से ग्रस्त बना देता है उसे तनाव कहते है । मनोवैज्ञानिक दृष्टि से चित्त या मन का अशान्त होना ही तनाव है। दैहिक दृष्टि से जो हमारी दैहिक क्रियाओं का संतुलन (Hormony) भंग कर देता है, वह तनाव है। आध्यात्मिक दृष्टि से आत्मा या चित्तवृत्ति के समत्व या शान्ति का भंग हो जाना ही तनाव है ।
जीवन जीना बहुत ही आसान हो सकता है, अगर हमारी सारी जैविक आवश्यकताएँ सहज रूप से पूरी हो जाऐं। ठीक उसी तरह जिस तरह जैनदर्शन के अनुसार अकर्मभूमि में कल्पवृक्ष व्यक्ति की सभी आवश्यकताओं को पूरी कर देते हैं। जब व्यक्ति की प्रत्येक आवश्यकता पूरी हो जाती है, तब उसे न तो किसी तरह का विषाद होता है, न ही कोई दुःख होता है । उसकी ऐसी कोई समस्या भी नहीं होती है, जो उसे तनावग्रस्त बनाए । इसीलिए उस युग को सुखद (सुषमा) कहते हैं । किन्तु वर्तमान में मनुष्य के सामने अनगिनत समस्याएँ हैं, क्योंकि उसकी इच्छाएं या आकांक्षाएं अनन्त हैं। व्यक्ति स्वप्न में तो चैत्तसिक
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