Book Title: Gurvavali
Author(s): Munisundarsuri
Publisher: Yashovijay Jain Pathshala
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गुर्वावली । शिवाध्वरक्षकरतान्मुमुक्षून ॥७॥ प्रावाजीयो भगवान् परिहृत्य द्रविणकोटिनवनवतिमा सञ्जनितजनकजननीजायाचौरादिसम्बोधः ॥८॥ प्रभुः सजीयात्प्रभवो ४ महामति
जम्बूगुरोः कोशहरः सुचौरराट् । योरत्नकोटीः परिमुच्य गेहगा
रत्नत्रयं मानसभूस्थमप्यलात ॥ ९ ॥ शय्यंभव ५स्तत्पदमण्डनः सतां
तनोतु तातो मनकस्य सम्पदः । अजीगमद्यो जिनराजदर्शनं
सुदर्शनं मुक्तिरमानिदर्शनम् ॥ १० ॥ सूरियशोभद्र ६ इति प्रसिद्धः
शिष्यस्तदीयः स ददातु भद्रम् । गजाब्धिचन्द्र १४८ प्रमिते गुरुर्यो
बभूव वर्षे जिनमोक्षकालात् ॥११॥ सम्भूतविजयनामा७ तस्य विनेयस्तनोतु शं प्रथमः। यत्पदपद्मोपान्ते प्रबजितः स्थूलभद्रगुरुः ॥ १२ ॥
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