Book Title: Gurvavali
Author(s): Munisundarsuri
Publisher: Yashovijay Jain Pathshala
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गुर्वावली। मूले तनीयानपि चाग्रतोऽग्रतः ॥ ५१ ॥
तथाहि । अथागमत्सूरिरयं विदूरयंस्तमस्ततिं मालवमण्डलावनौ । तत्रोज्जयिन्यां जिनचन्द्रसंज्ञयाभवन्महेभ्यो जिनसाधुभक्तिभृत् ॥ ५२ ॥ अस्ति वीरधवलाढयस्य स ___ स्वाङ्गजस्य करपीडनोत्सवम्। कारयन्नसमरूपया समं
यावदिभ्यगजपालकन्यया ॥५३॥ तावदेव स गुरोः समागमं
संनिशम्य नतये ऽगमत्सुतः । संनिपीय च सुदेशनासुधां
मोहतापविलयात्प्रबुद्धवान् ॥ ५४॥ भीतोभवात्तस्य गुरोः पदान्ते
समानयित्वा पितरौ प्रवीणः। ततः प्रवव्राज विहाय जम्बू
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