Book Title: Gurvavali
Author(s): Munisundarsuri
Publisher: Yashovijay Jain Pathshala
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गुर्वावली ।
३७
चिक्षेप प्रोन्मदान् दूरं वादिनः कर्करानिव ॥ ७२॥ शिष्योऽथ देवेन्द्रगुरोर्द्वितीयकः श्रीधर्मघोषः ४७ सुकृताब्धिपोषकः
शोषं नयन्नन्ययशः सरखती
योगान् बभौ पल्लवयन् वसन्तवत् ॥ ७३ ॥ दैवात्रयोदशदिनान्तरतोगते खः
शैलद्विविश्वशरदि १३२७ स्वगुरुद्वयेऽपि ॥ यो वाचकोऽधिगतसूरिपदः स्वगोत्रि. सूरेर्जघान किल मत्सरिणाङ्कदाशाः ॥७४॥ स च श्रीधर्मकीत्र्त्याह्नः श्रीविद्यानन्दबान्धवः । जित्वा मत्सरिणः शक्त्या भविश्वाब्देऽ १३२८
भवद्गणी ॥ ७५ ॥ तपस्क्रियोत्कर्षितसद्गुणश्रिया प्रकृष्टसौभाग्यरमानिकेतनम् । समृद्धयोऽष्टावपि तं युगोत्तमं
समंश्रिता निर्मित कार्मणा इव ॥ ७६ ॥
* षण्मास्या स्वगुरुस्वर्गादिति वा पाठः ।
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