Book Title: Gurvavali
Author(s): Munisundarsuri
Publisher: Yashovijay Jain Pathshala
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श्रीमुनिमुन्दरमारविरचिता पृथ्वीधर प्राप्य मुदं दधुस्ते ॥६॥ कैवल्यदानप्रतिभूजिनोक्त
समप्रशास्त्रावलिलेखनेन। भबीभरत्सप्त स सारकोशान्
सरस्वतीकेलिगृहानिवोच्चैः॥॥ श्रीस्तम्भतीर्थे निवसन् प्रभावको
वेषं स भीमः प्रजिघाय सङ्घराट् । पृथ्वीधरस्याप्युचितं समर्चयन्
शीलप्रपत्तौ निखिलान् सधर्मकान् ॥८॥ युतः सुपत्न्या प्रथमिन्यभिख्यया
तथैव सार्मिकतां विभावयन् । द्वात्रिंशवर्षोऽपि भटोजितस्मरः
प्रपद्य शीलं तमथो सपर्यघात् ॥९॥ प्रियापि साऽस्य प्रथमिन्यभिख्या
ख्याता सतीषु प्रथमाचरेखा । कदापि या क्वापि न पुण्यकृत्यैः
रहीयताऽस्मागुरुदेवभक्ता ॥१."
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