Book Title: Gurvavali
Author(s): Munisundarsuri
Publisher: Yashovijay Jain Pathshala
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श्रीमुनिसुन्दरसूरिविरचिता अपश्चिमः पूर्वभृतां द्वितीयः
श्रीभद्रबाहुश्च ७ गुरुः शिवाय । कृलोपसर्गादिहरस्तवं यो
ररक्ष सङ्घ धरणार्चितांहिः ॥ १२ ॥ नियूढसिद्धान्तपयोधिराप
स्वर् यश्च वीरात् खनगेन्दुवर्षे १७० । तयोर्विनेयः कृतविश्वभद्रः
श्रीस्थूलभद्रश्च ८ ददातु शर्म ॥ १४॥ स्त्रीसङ्गवह्नावपि यस्य शील
द्रुमोऽभवत्पल्लवपेशलश्रीः। सूत्राच्च पूर्वाणि चतुर्दशापि बभार यो दर्शितलब्धिलालः ॥ १५ ॥
विशेषकम् । तिथिद्विसङ्खये २१५ त्रिदिवं गतस्य
तस्याऽब्दके वीरजिनेन्द्रमुक्तः । महागिरि ९स्तत्प्रथमो विनेयः श्रियेऽभवद्यो जिनकल्पिकल्पः॥ १६॥
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