Book Title: Gurvavali
Author(s): Munisundarsuri
Publisher: Yashovijay Jain Pathshala

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Page 22
________________ गुर्वावली। श्रीविक्रमार्कान्नवभिः स सूरिराट् । पूर्वावनीतो विहरन्नथागमद् यात्राकृते तस्य गिरेरुपत्यकाम् ॥ ५३ ॥ टेलीखेटकसीमसंस्थितवटस्याधः पृथोस्तत्र सः प्राप्तः श्रेष्ठतम मुहूर्त्तमतुलं ज्ञाला तदाऽतिष्ठिपत् । सूरीन सौचकुलोदयाय भगवानष्टौ जगुस्त्वेककं केचिद्वृद्धगणोऽभवद्वटगणाभिख्यस्तदादि९९४त्वयम्॥ न्यग्रोधगच्छेऽथ बभूव तस्मिन् श्रीसर्वदेवः ३५प्रथमो मुनीन्द्रः। श्रीसूरिमन्त्रातिशयर्डिधारी विश्वोपकारी गणिसंपदाख्यः ॥ ५५ ॥ चरित्रशुहिं विधिवजिनागमा द्विधाय भव्यानभितः प्रबोधयन् । चकार जैनेश्वरशासनोन्नति यः शिष्यलब्ध्याऽभिनवो ऽनुगौतमः॥५६॥ नृपादशाग्रे शरदां सहस्रे १०१० यो रामसैन्याह्नपुरे चकार। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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