Book Title: Gurvavali
Author(s): Munisundarsuri
Publisher: Yashovijay Jain Pathshala
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श्रीमुनिसुन्दरसूरिविरचिता माजीवितान्तं विकृतीश्च सर्वाः ॥ ३१ ॥
युग्मम्। पद्मां जयां च विजयामपराजितांच
साक्षाघदेहिसमुपास्ति परां निरीक्ष्य । नारीवृतोऽयमिति निर्मितदुर्विकल्पं ___ कञ्चिन्नरं लघुविमुग्धमशिक्षयस्ताः ॥३२॥ वर्षासु नड्डुलपुरस्थितोऽपि
शाकम्भरीनाम्नि पुरे प्रभूताम् । तदागतश्राद्धगणार्थनातः __ शान्तिस्तवान्मारिमपाहरद्यः ॥ ३३ ॥ यः संयमाढ्यमुनिपञ्चशतीगणेन्द्रः सर्वातिशायिमहिमागुणरत्नवार्डिः। निन्ये जिनेश्वरमतं परमां प्रतिष्ठां श्लाघ्यःस कस्य नगुरुः खलु मानदेवः२०॥३४॥ आसीत्ततो दैवतसिद्धिऋद्धः
श्रीमानतुङ्गोऽथ गुरुः२१ प्रसिद्धः । भक्तामराद्वाणमयूरविद्या
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