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प्रत्येक सन्धिमें, 'भद्रवाहु ' ऐसा नाम जरूर लगा हुआ है; मंगलाचरणमें गोवर्धनं गुरुं नत्वा' इस पदके द्वारा गोवर्धन गुरुका, जो कि भद्रबाहु श्रुतकवलीके गुरु थे, नमस्कारपूर्वक स्मरण किया गया है; कई स्थानों पर ' मैं भद्रवाटु सुनि ऐसा कहता हूँ या कहूँगा' इस प्रकारका उल्लेख पाया जाता है; और एक स्थानपर “भद्रवादुरुवाचेदं पंचमः श्रुतकेवली* यह वाक्य भी दिया है । इसके सिवाय ग्रंथमें कहीं कहींपर किसी कथनके सम्बंधमें इस प्रकारकी सूचना भी की गई है कि वहं कथन भद्रबाहु श्रुतकेवलीका या द्वादशांगके जाननेवाले भद्रबाहुका है । इन्हीं सब बातोंके कारण जैनसमाजके वर्तमान विद्वानोंका उपर्युक्त अनुमान और कथन जान पड़ता है। परन्तु सिर्फ इतने परसे ही इतना बढ़ा भारी अनुमान कर लेना बहुत बड़े साहस और जोखमका काम है, खासकर ऐसी हालत और परस्थितिमें जब कि इस प्रकारके अनेक ग्रंथ जाली सिद्ध किये जा चुके हो। जाली ग्रंथ बनानेवालोंके लिए इस प्रकारका खेल कुछ भी मुश्किल नहीं होता और इसका दिग्दर्शन पहले तीन ग्रंथोंपर लिखे गये परीक्षालेखाद्वारा भले प्रकार कराया जा चुका है+। भद्रबाहुको हुए आज २३ सौ वर्षका लम्बा चौड़ा समय बीत गया। इस अर्सेमें बहुतसे अच्छे अच्छे विद्वान और माननीय आचार्य होगये; परन्तु उनमेंसे किसीकी भी कृतिम इस ग्रंथका नामोल्लेख तक नहीं मिलता और न किसी प्राचीन शिलालेखमें ही इस ग्रंथका उल्लेख पाया जाता है। श्रुतकवली जैसे आदर्श पुरुष द्वारा रचे हुए एक ऐसे ग्रंथका, जिसका अस्तित्व आजतक
* खंड ३ अध्याय १ श्लोक १० का पूर्वार्ध । __ + इससे पहले उमास्वामि-श्रावकाचार, फुन्द-कुन्दप्रावकाचार और जिनसेनत्रिवर्णाचार ऐसे तीन प्रेयोंकी परीक्षा की जा चुकी है, जिनके पाँच परीक्षालेख जैनहितपीके १० वें भागमें प्रकाशित हुए हैं।