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(२९) अर्थात् 'दुर्गादि और एलादिक नामके पूर्वाचार्योने रिष्टसंबंधमें जैसा कुछ वर्णन किया है उसके अभिप्रायको लेकर मैं वैसे ही यह रिष्टका कथन करता हूँ '। इस प्रतिज्ञावाक्यसे स्पष्ट है कि ग्रंथकर्ताने दुर्गादिक,
और एलादिक नामके आचार्योंको 'पूर्वाचार्य ' माना है। वे ग्रंथकर्तासे पहले होगये हैं और उन्होंने रिष्ट या अरिष्टके सम्बंध कोई ग्रंथ लिखे हैं जिनके आधारसे ग्रंथकर्ताने यहाँ कथनकी प्रतिज्ञा की है। ऐसी हालतमें उक्त आचार्यों और उनके ग्रंथोंकी खोज लगानेकी ज़रूरत पैदा हुई । सोज लगानेसे मालूम हुआ कि भद्रबाहु श्रुतकेवलीसे पहले इस नामके कोई भी उल्लेख योग्य आचार्य नहीं हुए । एक एलाचार्य भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यका दूसरा नाम है । दूसरे एलाचार्य चित्रकूटपुरनिवासी कहे. जाते हैं जिनसे वीरसेनाचार्यने सिद्धान्तशास्त्र पढ़ा था और जिनका उल्लेख इन्द्रनन्दिने अपने 'श्रुतावतार' ग्रंथमें किया है। तीसरे एलाचार्य भट्टारक हैं, जिनका नाम 'दि. जैनग्रंथकती और उनके ग्रन्थ' नामकी सूचीमें दर्ज है, और जिनके नामके साथ उनके बनाये हुए ग्रंथोंमें सिर्फ 'ज्वालामालिनी कल्प ' नामके किसी ग्रंथका उल्लेख है। ये तीनों एलाचार्य भद्रबाहु श्रुतकेवलीसे उत्तरोत्तर कई कई शताब्दी वाद हुए माने जाते हैं। इनमेंसे किसी भी आचार्यका बनाया हुआ रिट-विषयका कोई ग्रंथ उपलब्ध नहीं हुआ। 'दुर्ग' नामके आचार्यकी खोज लगाते हुए. 'जेनग्रंथावली' से मालूम हुआ कि 'दुर्गदेवनामके किसी जैनाचार्यने 'रिष्टसमुच्चय ' नामका कोई ग्रंथ बनाया है और वह ग्रंथ जैनियोंके । किसी भी प्रसिद्ध भंडारमें न होकर 'दकनकालिज पूना' की लायबेरीमें मौजूद है। चूंकि यह ग्रंथ उसी विषयसे सम्बंध रखता था जिसके कथनकी प्रतिज्ञाका ऊपर उल्लेख है, इस लिए इसको मँगानेकी कोशिश की गई । अन्तको, श्रीयुत पं० नाथूरामजी प्रेमीने अपने मित्र श्रीयुत मोहनलाल दलीचंदजी देसाई, वकील बम्बई हाईकोर्टकी मार्फत पूनाकी लायब्रेरीसें उक्त ग्रंथको मँगाकर उसे मेरे पास भेज देनेकी कृपा की।