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(६२) वास्तवमें ऐसा नहीं है। गाना, बजाना और नाचना ये तीनों चीजें . अलग अलग हैं और अलग अलग गुण कहे जाते हैं, जैसा कि उक्त 'पदमें लगे हुए 'त्रिक ' शब्दसे भी जाहिर है ।
नाधर्मश्चरितो लोके सद्यः फलति गौरिख । . शनैरावर्तमानस्तु कतुर्मुलानि कृन्तति ॥ ४-१७२ ॥
(-मनुस्मृतिः।) नाधर्मस्त्वरितो लोके सद्यः फलति गौरिव।। शनरावर्तमानस्तु कर्तुर्मूलानि कृन्तति ॥ ४-८५ ॥
(भद्रवाहुसं०।) ये दोनों पद्य प्रायः एक हैं। भद्रबाहुसंहिताके पद्यमें जो कुछ थोड़ासा परिवर्तन है वह समीचीन मालूम नहीं होता। उसका 'मिश्र' पद बहुत खटकता है और वह यहाँ पर कुछ भी अर्थ नहीं रखता । यदि उसे किसी तरह पर 'सघः' का पर्यायवाचक शब्द 'शीघ्र मान लिया जाय तो ऐसी हालतमें 'स्त्वरितो' के स्थानमें 'श्चरितो' भी मानना पड़ेगा और तव पद्य भरमें सिर्फ एक शब्दका ही अनावश्यक परिवर्तन रह जायगा।
आत्मा वै जायते पुत्रः पुत्रेण दुहिता समा।
तस्यामात्मनि तिष्ठन्त्यां कथमन्यो धन हरेत् ॥९-२६॥ . दायभाग प्रकरणका यह पद्य वही है जो मनुस्मृतिक ९ वें अध्यायमें नं० १३० पर दर्ज है। सिर्फ उसके 'यथैवात्मा तथा पुत्रः ? के स्थानमें 'आत्मा वैजायते पुत्रः' यह वाक्य बनाया गया है। इस परिवर्तनसे 'पुत्र अपने ही समान हकदार है' की जगह ' आत्मा निश्चयसे पुत्ररूप होकर उत्पन्न होता है । यह अर्थ होगया है।
कृत्वा यज्ञोपवीतं तु पृष्ठतः कंठलम्बितम् । विमूत्र तु गृही कुर्याद्वामकर्णे व्रतान्वितः ॥ १-१८॥.