Book Title: Granth Pariksha Part 02
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 119
________________ ( १११ ) क्षान्तिभ्यः श्रावकेभ्यश्च श्राविकाभ्यश्व सादरः । वितरेदादनं योग्यं विदद्याच्चाम्बरादिकं ॥ १०७ ॥ कुमारॉथ कुमारीथ चतुर्विंशतिसम्मितान् । भोजये दनुवर्तेत दीनानथजनानपि ॥ १०८ ॥ " इनमें लिखा है कि:' इस प्रकार तीनों संध्याओं और अर्धरात्रिके समयकी, स्नानसे लेकर होम पर्यंतकी, जो यह विधि कही गई है वह साह पूर्वक सात दिन तक या २१ दिन तक अथवा जब तक साध्यकी सिद्धि न हो तब तक करनी चाहिए। और इन संपूर्ण दिवसोंमें शांति करानेवालेको चाहिए कि अतिथियों तथा मुनियोंको केला आम्रादि अनेक रसीले फलोंके सिवाय दूध, दही, घी, मिठाई तथा लड्न, पूरी आदि खूब स्वादिष्ट और तर माल खिलावे । मुनि-आर्यिका - ओं, श्रावक-श्राविकाओंको चावल वितरण करे तथा वस्त्रादिक देवे । और २४ कुमार-कुमारियोंको जिमानेके बाद दीनों तथा दूसरे मनुष्योंको भी भोजन करावे । ' इस तरह पर यह सब शांतिहोमका विधान है जिसकी महिमाका ऊपर उल्लेख किया गया है । विपुल धन -साध्य होने पर भी ग्रंथकर्ताने छोटे छोटे क्योंको लिए भी इसका प्रयोग करना बतलाया है । बल्कि यहाँ तक लिखा दिया है कि जो कोई भी अशुभ होनहारका सूचक चिह्न दिखलाई दे उस सबकी शांति के लिए यह विधान करना चाहिए। यथा: "यो यो भूद्रापको ( ? ) हेतुरशुभस्य भविष्यतः । शांति होमममुं कुर्यात्तत्र तत्र यथाविधि ॥ ११४ ॥ इस शांतिविधानका इतना महत्त्व क्यों वर्णन किया गया ? क्यों इसके अनुष्ठानकी इतनी अधिक प्रेरणा की गई ? आडम्बरके सिवाय इसमें कोई वास्तविक गुण है भी या कि नहीं ? इन सब बातोंको तो ग्रंथकर्ता महाशय या केवली भगवान् ही जानें ! परन्तु सहृदय पाठकोंको, इस संपूर्ण "

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