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(११७). " पासत्थाणं सेवी पासत्यो पंचचेलपरिहीणो।
विवरीयहपवादी अवंदणिज्जो जई होई ॥ १४ ॥ - पहले पद्यमें लिखा है कि 'भरतक्षेत्रका जो कोई मुनि इस दुःषम पंचम कालमें संघके क्रमको मिलाकर दिगम्बर हुआ भ्रमण करता हैअर्थात् यह समझकर कि चतुर्थ कालमें पूर्वजोंकी ऐसी ही दैगम्बरी वृत्ति रही है तदनुसार इस पंचम कालमें प्रवर्तता है-वह मूढ़ है और उसे संघसे बाहर तथा खारिज समझना चाहिए । और दूसरे पद्यमें यह बतलाया है कि वह यति भी अवंदनीय है जो पंच प्रकारके वस्त्रोंसे रहित है । अर्थात उस दिगम्बर मुनिको भी अपूज्य ठहराया है जो साल, छाल, रेशम, ऊन और कपास, इन पाँचों प्रकारके वस्त्रोंसे रहित होता है । इस तरह पर ग्रंथकतान दिगम्बर मुनियों पर अपना कोप प्रगट किया है। मालूम होता है कि ग्रंथकर्ताको आधुनिक भट्टारकों तथा दूसरे श्रमणामासाको तीर्थकरकी मूर्ति बनाकर या जिनेंद्रके तुल्य मनाकर ही संतोप नहीं हुआ बल्कि उसे दिगम्बर मुनियोंका अस्तित्व भी असह्य तथा कष्ट कर मालूम हुआ है और इस लिए उसने दिगम्बर मुनियोंको मूद,अपूज्य और संघबाह्य करार देकर उनके प्रति अपनी घृणाका प्रकाश किया है । इतने पर भी दिगम्बर जैनियोंकी अंधश्रद्धा और समझकी बलिहारी है कि वे ऐसे ग्रंथका भी प्रचार करनेके लिए उद्यत होगये ! सच है, साम्प्रदायिक मोहकी भी बड़ी ही विचित्र लीला है !!