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(११५) पहले उल्लेख किया है ) 'महामह नामका बड़ा पूजन करना चाहिए। इसके बाद बाहरसे आये हुए दूसरे आचार्योंको अपने अपने गणसहित इस नये आचार्यको ( मंडलाचार्य या आचार्य चक्रवर्तीको!) वन्दना करके स्वदेशको चले जाना चाहिए । संघक किसी भी व्यक्तिको इस नव. प्रतिष्ठित आचार्यकी कभी निन्दा नहीं करनी चाहिए और न उससे नाराज ही होना चाहिए (चाहे वह कैसा ही निन्दनीय और नाराजीका काम क्यों न करे!)।" * ___ पाठक, देखा, कैसा विचित्र विधान है ! स्वार्थ-साधनाका कैसा प्रबल
अनुष्ठान है ! जैनधर्मकी शिक्षासे इसका कहाँ तक सम्बंध है ! जैनमहामनियोंकी-आरंभ और परिग्रहके त्यागी महावतियोंकी-पैसा तक पास न रखनेवाले तपस्वियोंकी-कैसी मिट्टी पलीद की गई है!! क्या जैनियोंके आचारांग-सूत्रोंमें निग्रंथ साधुओंके लिए ऐसे कृत्योंकी
१३ सगसगगणेण जुत्ता, आयरिया जह कमेण वंदित्ता। लहुवा जति सदेसं परिकलिय सूरिसूरेण ।। १४ सौ पठदि सव्वसत्यं दिक्खा विज्जाइ धम्म वहत्थं ।
णहु जिंददि णहु रूसदि संघो सम्वो विसव्वत्थ ।। * जिस अध्यायका यह सव कथन है उसके आदि और अन्तमें दोनों ही जगह भद्रवाहुका नामभी लगा हुआ है । शुरूके पद्यमें यह सूचित किया है कि 'गुप्तिगुप्त' नामके मुनिराजके प्रश्न पर भद्रबाहु स्वामीजीने इस अभ्यायका प्रणयन किया है । और अन्तिम पद्यमें लिखा है कि 'इस प्रकार परमार्थक प्ररूपणमें महा तेजस्वी भद्रवाहु जिनके सहायक होते हैं वे धन्य हैं और पूरे पुण्याधिकारी हैं । यथाः
" सिरिभद्रवाहुसामि गमसित्ता गुत्तिगुत्तमुणिणाहिं । परिपुच्छियं पसत्यं अहं पइशावणं जहणो ॥ ३ ॥ " इय भद्रवाहुसूरी परमत्यपरूवणे महातेओ। जेसिं होई समत्थो ते धण्णा पुण्णपुण्णा य ॥ ८० ॥"