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इनमेंसे चाहे किसी चीज़के बने हुए हों सब आचार्य - प्रतिष्ठा के योग्य वल्कि यदि वे खूब अच्छी तरहसे सजे हुए और जड़ाऊ भी हों तो भी शुद्ध और ग्राह्य हैं । एक सिंहासनके नीचे आठ पँखड़ीका कमल भी चावलोंसे बनाना चाहिए। इसके बाद वह भावी आचार्य, यंत्रकी पूजा-प्रदक्षिणा करके; सिंहासन पर कलश डालकर और अपने गुरुसे पूछकर उस सिंहासन पर बैठे | बैठ जाने पर पूर्वाचार्यों के नाम लेकर स्तुति करे । इसके बाद एक इन्द्र उस आचार्य के सन्मुख बाँचने के लिए सिद्धान्तादि शास्त्र रक्खे और फिर संपूर्ण संघ उसे वंदना करके इस वातकी घोषणा करे कि ' यह गुरु जिनेंद्रके समान हमारा स्वामी है । धर्मके लिए यह जो कुछ करायगा (चाहे वह कैसा ही अनुचित कार्य क्यों न हो ? ) उसको जो कोई मुनि आर्यिका या श्रावक नहीं मानेगा वह संघसे बाहिर समझा जायगा । इस घोषणाके बाद मोतियोंकी माला तथा उत्तम वस्त्रादिकसे शास्त्रकी और गुरुके चरणोंकी पूजा करनी चाहिए । दूसरे दिन संघके सुखके लिए शांतिविधानपूर्वक' ( वही विधान जिसका
८ तस्सतले वरपउमं अदलं सालितंदुलो किण्णं । मज्झे मायापत्ते तलपिंडं चारु सव्वत्य ॥
९ पच्छा पुज्जिवि जंतं तिय पाहिण देहि सिंहपीठस्स । कुंभिय पायाणो सगणं परिपुच्छिय विउसउतं पीठे ॥ १० तो बंदिऊण संघो विच्छाकिरयाए चारुभावेण । आघोसदि एस गुरू जिणुव्व अम्हाण सामीय || जं कारदि एस गुरु धम्मत्थं तं जो ण मण्णेदि । सो सवणो, अज्जा वा सावय वा संघवाहिरओ ॥ ११ एवं संघोसित्ता मुत्तामाला दिदिव्त्रवत्थेहिं । पात्थयपूर्यं किच्चा तदोपरं पायपूया य ॥ १२ तत्तो विंदि दिवसे महामहं संतिवायणाजुत्तं । भूयवलिं गृहसंति करिज्जए संघसोसत्यं ॥