Book Title: Granth Pariksha Part 02
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 124
________________ ( ११६ ) कोई विधि हो सकती है? कभी नहीं । जिन लोगोंको जैनधर्मके स्वरूपका कुछ भी परिचय है और जिन्होंने जैनधर्मके मूलाचार आदि यत्याचार विषयक ग्रंथोंका कुछ अध्ययन किया है वे ऊपरके इस विधि-विधानको देखकर एकदम कह उठेंगे कि 'यह कदापि जैनधर्मके निग्रंथ आचार्योंकी प्रतिष्ठाविधि नहीं हो सकती' - निर्ग्रथ मुनियोंका इस विधानसे कोई सम्बंध नहीं हो सकता। वास्तवमें यह सब उन महात्माओंकी लीला है जिन्हें हम आज कल आधुनिक भट्टारक, शिथिलाचारी साधु या श्रमणाभास आदि नामोंसे पुकारते हैं । ऐसे लोगोंने समाजमें अपना सिक्का चलानेके लिए, अपनेको तीर्थकरके तुल्य पूज्य मनानेके लिए और अपनी स्वार्थसाधनाके लिए जैनधर्मकी कीर्तिको बहुत कुछ कलंकित और मलिन किया है; उसके वास्तविक स्वरूपको छिपाकर उस पर मनमाने तरह तरहके रंगोंके खोल चढ़ाये हैं; वही सब खोल बाह्य दृष्टिसे देखनेवाले साधारण जगत्को दिखलाई देते हैं और उन्हींको साधारण जनता जैनधर्मका वास्तविक रूप समझकर धोखा खा रही है। इसी लिए आज जैनसमा - जमें भी घोर अंधकार फैला हुआ है, जिसके दूर करनेके लिए साति शय प्रयत्नकी जरूरत है । दिगम्बर मुनियों पर कोप । ( २० ) तीसरे खंड के इसी सातवें अध्यायमें दो पद्य इस प्रकार से दिये हैं: " भरहे दूसमसमये संघकमं मेलिऊण जो मूढो । परिवद्ध दिगविरभो सो सवणो संघवाहिरओ ॥ ५॥* * इस पद्यकी संस्कृत टीका इस प्रकार दी है: - 'भरते दुःषमसमये पंचमकाले संघक्रमं मेलयित्वा यो मूढः परिवर्तते परिभ्रमति चतुर्दिक्षु विरतः विरक्तः सन् दिगम्बरः सन् स्वेच्छ्या श्रमति स श्रमणः संघवाह्यः । 33

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