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उपसंहार।
ग्रंथकी ऐसी हालत होते हुए, जिसमें अन्य बातोंको छोड़कर दिगम्बर मुनि भी अपूज्य और संघबाह्य ठहराये गये, यह कहने में कोई संकोच नहीं होता कि, यह ग्रंथ किसी दिगम्बर साधुका कृत्य नहीं है । परन्तु श्वेताम्बर साधुओंका भी यह कृत्य मालूम नहीं होता; क्योंकि इसमें बहुतसी बातें हिन्दूधर्मकी ऐसी पाई जाती हैं जिनका स्वेताम्बर धर्मसे भी कोई सम्बंध नहीं है। साथ ही, दूसरे खंडके दूसरे अध्यायमें 'दिग्यासा श्रमणोत्तमः' इस पदके द्वारा भद्रबाहु श्रुतकेवलीको उत्कृष्ट दिगम्बर साधु बतलाया है । इस लिए कहना पड़ता है कि यह ग्रंथ सिर्फ ऐसे महात्माओंकी. करतूत है जो दिगम्बर-श्वेताम्बर कुछ भी न होकर स्वार्थसाधना और ठगविद्याको ही अपना प्रधान धर्म समझते थे। ऐसे लोग दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनो ही सम्प्रदायोंमें हुए हैं । श्वेताम्बरोंके यहाँ भी इस प्रकारके और बहुतसे जाली ग्रंथ पाये जाते हैं, जिन सबकी जाँच, परीक्षा और समालोचना होनेकी जरूरत है । श्वेताम्बर विद्वानोंको इसके लिए खास परिश्रम करना चाहिए; और जैनधर्म पर चढ़े हुए
शैवाल (काई ) को दूर करके महावीर भगवानका शुद्ध और वास्तविक शासन जगत्के सामने रखना चाहिए । ऐसा किये जाने पर विचार-स्वातंत्र्य फैलेगा । और उससे न सिर्फ जैनियोंकी बल्कि दूसरे लोगोंकी भी साम्प्रदायिक मोह-मुग्धता और अंधी श्रद्धा दूर होकर उनमें सदसद्विवेकवती बुद्धिका विकाश होगा । ऐसे ही सदुद्देश्योंसे प्रेरित होकर यह परीक्षा की गई है। आशा है कि इन परीक्षा-लेखोंसे जैन.अजैन विद्वान् तथा अन्य साधारण जन सभी लाभ उठावेंगे । अन्तमें