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(१३) दूसरे गणधरका शिष्य हो तो उसका केशलोच और आलोचनापूर्वक नामकरण संस्कार भी होना चाहिए। बारह दिन तक दीनोंको दान वाँटी जाय और युवतीजन भक्तिपूर्वक मंगल गीत गावें । आचार्य पद पर प्रतिष्ठित होनेवाले उस मनुष्यको चाहिए कि बारह दिन तक ऐसा कोई शब्द न कहे जिससे संघमें मत्सर-भाव उत्पन्न हो जाय ( काम बन जाने पर पीछेसे भले ही कहले ! )। मुनियोंके इस उत्सवमें नाचने-गानेका भी विधान किया गया है, जिसके लिए बारह पुरुषों और उनकी बारह स्त्रियोंको चाहिए कि वे खूब सजधज कर-इंद्र इंद्राणियोंका रूप बनाकर और अपने 'सिरों पर कलशे रखकर भावी आचार्यके सन्मुख नाचे, गावें और पाठ पढ़े। इसके बाद वे सब इंद्र-इंद्राणियाँ मंडलको नमस्कार करें और दक्षिण ओरके मंगल द्रव्यको प्राप्त होकर तथा सात धान्योंको छूकर एक मंत्रका जाप्य करें । स्नानके लिए चाँदी-सोनेके रंगके चार कलशे पानी और अनेक ओषधियोंसे भरे हुए होने चाहिए । और चार ही सिंहासन होना चाहिए । सिंहासन सोना, रूपा, ताम्बा, काष्ठ और पाषाण,
३ वासरवारसं जावदु दीजणाणं च दिजए दाणं । गायइ मंगलगीयं जुवइजण भत्तिराएण ॥ ४ जेण वरणेण संघो समच्छरो होई तं पुणो वयणं । बोरसदिवंसं जावदु वज्जियदव्वं अपमत्तण ॥ ५ वारस इंदा रम्मा तावदिया चैव तेसिमवलाओ। व्हाणादिसुद्धदेहा रत्तभरमउडकतसोहा ॥ पुंडिक्खुदंडहत्था इंदाइंदायणीउ सिरकलसा। आयरियस्स पुरत्था पदंति णाचंति गायति ॥ . ६ कलसाइं चारि रूप्पय हेमय-वण्णाई तोयभरियाई दिवोसहिजुत्ताई पयोहवणे होति इत्य जोगाई ॥ ७ सीहासणं पसत्यं भम्मारसुरूप्पकहपाहणयं । । आयरियठवणजोगं विसेसदो भूसियं सुद्धं ॥ .