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कथनसे, इतना ज़रूर मालूम हो जायगा कि इस विधानमें, जैनधर्मकी शिक्षाके विरुद्ध कथनोंको छोड़कर, कपटी और लोभी गुरुओंकी स्वार्थसाधनाका बहुत कुछ तत्त्व छिपा हुआ है। ..
आचार्यपद-प्रतिष्ठा। (१९) इस ग्रंथके तीसरे खंड सम्बन्धी सातवें अध्यायमें, दीक्षा. लमका निरूपण करनेके बाद, आचार्य-पदकी प्रतिष्ठा-विधिका जो वर्णन दिया है उसका सार इस प्रकार है। फुट नोट्समें कुछ पद्योंका नमूना
भी दिया जाता है:___ "जिस नगर या ग्राममें आचार्य पदकी प्रतिष्ठा-विधि की जाय वह सिर्फ निर्मल और साफ ही नहीं बल्कि राजाके संघसे भी युक्त होना चाहिए । इस विधान के लिए प्रासुक भूमि पर सौ हाथ परिमाणका एक क्षेत्र मण्डपके लिए ठीक करना चाहिए और उसमें दो वेदी बनानी चाहिये। पहली वेदीमें पाँच रंगोंके चूर्णसे 'गणधरवलय' नामका मंडल बनाया जाय; और दूसरी वेदीमें शांतिमंडलकी महिमा करके चक्रको नाना प्रकारके घृत-दुग्धादिमिश्रित भोजनोंसे संतुष्ट किया जाय । संतुष्ट करनेकी यह क्रिया उत्कृष्ट १२ दिन तक जारी रहनी चाहिए। और उस समय तकं वहाँ प्रति दिन कोई योगीजन शास्त्र वाँचा करे। साथ ही आभिषेकादि क्रियाओंका व्याख्यान और अनुष्ठान भी हुआ करे। जिस दिन आचार्यपदकी प्रतिष्ठा की जाय उस दिन एकान्तमें सारस्वत युक्त आचारांगकी एक बार संघसहित और दूसरी बार, अपने वर्गसहित, पूजा करनी चाहिए । यदि वह मनुष्य ( मुनि ), जो आचार्य पद पर नियुक्त किया जाय, - १ कायव्वं तत्य पुणो गणहरवलयस पंचवण्णेण ।
चुणेण य कायव्वं उद्धरणं चाह सोहिल्लं ।। २ दुइजम्मि संति मंडलमाहिमा काऊण पुप्फधूवेहिं । णाणाविहभक्खेहि य करिजपरितोसियं चकं ॥