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इस प्रकरण अभिषेकका विधान है जिसको 'महाभिषेक ' प्रगट किया है ! इस अभिषेकके बाद 'शान्त्यष्टक' को और फिर ' पुण्याहमंत्र को, जिसे 'शांतिमंत्र भी सूचित किया है और जो केवल आशीर्वादात्मक गय है, पढ़नेका विधान करके लिखा है कि ' गुरु प्रसन्न चित्त* होकर भगवान्के स्नानका वह जल ( जिसे भगवानके शरीरने छुआ भी नहीं ।) उस मनुष्यके ऊपर छिड़के जिसके लिए शांति-विधान किया गया है। साथ ही उस नगर तथा ग्रामके रहनेवाले दूसरे मनुष्यों, हाथीघोड़ों, गाय-भैंसों, भेड़-बकरियों और ऊँट तथा गधों आदि अन्य प्राणियों पर भी उस जलके छिड़के जानेका विधान किया है।
इसके बाद एक सुन्दर नवयुवकको सफेद वस्त्र तथा पुष्पमालादिकसे सजाकर और उसके मस्तक पर ' सर्वाल्ह' नामके किसी यक्षकी मूर्ति विराजमान करके उसे गाजेबाजे के साथ चौराहों, राजद्वारों, महाद्वारों, देवमंदिरों अनाजके ढेरों या हाथियोंके स्तंभों, स्त्रियोंके निवासंस्थानों, अश्वशालाओं, तीर्थों और तालाबों पर घुमाते हुए पाँच वर्णके नैवेद्यसे गंध- पुष्प- अक्षत के साथ जलधारा पूर्वक बलि देनेका विधान किया है । और साथ ही यह भी लिखा है कि पूजन, अभिषेक और बलिदान सम्बंधी यह सब अनुष्ठान दिनमें तीन बार करना चाहिए | इस बलिदान के पहले तीन पद्योंको छोड़कर, जो उस नवयुवककी सजावटसे -सम्बंध रखते हैं, शेष पय इस प्रकार हैं:----
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कस्यचिचारुरूपस्य पुंसः संद्वात्रधारिणः । सर्वाल्हयक्षं सोष्णीषे मूर्द्धन्यारोपयेत्ततः ॥ ६९ ॥
* गुरुकी प्रसन्नता सम्पादन करने के लिए इसी अध्यायमें एक स्थान पर लिखा है कि जिस द्रव्यके देनेसे आचार्य प्रसन्नचित्त हो जाय वही उसको देना चाहिए ।
न्यथा---
'द्रव्येण येन दत्तनाचार्यः सुप्रसन्नहृदयः स्यात् । - ग्रहशांन्त्यन्ते दद्यात्तत्तस्मै श्रद्धया साध्यः ॥ २१५ ॥