Book Title: Granth Pariksha Part 02
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 113
________________ ( १०५ ) " पूजान्ते बलिदानेन जिनेन्द्राभिषवेण च । महाश्रमण संघस्थ दानेन विहितेन च ॥ २०९ ॥ नवग्रहास्ते तृप्यंति प्रहार्तोश्चानुगृहते । शमयंति रोगांस्तान्स्वस्वस्थानस्वात्मना कृतान् ॥२१०॥ इससे यह सूचित किया गया है कि सूर्यादिक नव देवता अपनी इच्छासे ही लोगोंको कष्ट देते हैं और उनके अंगोंमें अनेक प्रकारके रोग उत्पन्न करते हैं। जब वे पूजन और बलिदानादिकसे संतुष्ट हो जाते हैं तब स्वयं ही अपनी मायाको समेट लेते हैं और इच्छापूर्वक लोगों पर अनुग्रह करने लगते हैं । दूसरे देवताओंके पूजन सम्बंधमें भी प्रायः इसी प्रकारका भाव व्यक्त किया गया है । इससे मालूम होता है कि यह सब पूजन विधान जैनसिद्धान्तोंके विरुद्ध है, मिथ्यात्वादिकको पुष्ट करके जैनियोंको उनके आदर्शसे गिरानेवाला है और, इस लिए कदापि इसे जैनधर्मकी शिक्षा नहीं कह सकते । स्वामिकार्तिकेय लिखते हैं कि ' जो मनुष्य ग्रह, भूत, पिशाच, योगिनी और यक्षोंको अपने रक्षक मानता है और इस लिए पूजनादिक द्वारा उनके शरण में प्राप्त होता है, समझना चाहिए कि वह मूढ़ है और उसके तीव्र मिथ्यात्वका उदय है । यथा: " एवं पेच्छंतो विहु गहभुयपिसायजोइणीजक्खं सरणं भण्णइ मूढो सुगाढ मिच्छत्तभावादो ॥ २७ ॥ इसी प्रकारके और भी बहुतसे लेखोंसे, जो दूसरे ग्रंथोंमें पाये जाते हैं, स्पष्ट है कि यह सब पूजन-विधान जैनधर्मकी शिक्षा न होकर दूसरे धर्मों से उधार लिया गया है । गुरुमंत्र या गुप्तमंत्र | (१७) उधार लेनेका एक गुरुमंत्र या गुप्तमंत्र भी इस ग्रंथके अन्तिम अध्यायमें पाया जाता है और वह इस प्रकार हैं:

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