Book Title: Granth Pariksha Part 02
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 112
________________ ( १०४ ) मंह खलु तो रिसिपुत्तियणाम णिमित्तं सूप्पाज्झयणा । पवक्खइस्सामि सयं सुभद्दवाहू मुणिवरोहं ॥ ३ ॥ इसमें लिखा है कि ' मैं भद्रबाहु मुनिवर निश्चयपूर्वक उत्पादाध्ययन नामके पूर्वसे स्वयं ही इस 'ऋषिपुत्रिका' नामके निमित्ताध्यायका वर्णन करूँगा । ' इससे यह सूचित किया गया है कि यह अध्याय खास द्वाद शांग-वाणीसें निकला हुआ है - उसके ' उत्पाद ' नाम के एक पूर्वका अंग है - और उसे भद्रबाहु स्वामीने खास अपने आप ही रचा है- अपने किसी शिष्य या चेलेसे भी नहीं बनवाया और इस लिए वह बड़ी ही पूज्य दृष्टिसे देखे जानेके योग्य है ! निःसन्देह ऐसे ऐसे वाक्योंने सर्व साधारणको बहुत बड़े धोखे में ढाला है । यह सब कपटी साधुओंका कृत्य है, जिन्हें कूट बोलते हुए जरा भी लज्जा नहीं आती और जो अपने स्वार्थके सामने दूसरोंके हानि-लाभको कुछ नहीं समझते ॥ . ग्रहादिक देवता । (१६) इसी प्रकार से दूसरे अध्यायोंमें और खास कर तीसरे खंडके 'शांति' नामक दसवें अध्यायमें रोग, मरी, दुर्भिक्ष और उत्पातादिककी शांतिके लिए ग्रह-भूत-पिशाच- योगिनी-यक्षादिक तथा सर्पादिक और भी बहुत से देवताओंकी पूजाका विधान किया है, उन्हें शान्तिका कर्त्ता बतलाया है और उनसे तरह तरहकी प्रार्थनायें की गई हैं; जिन सबका कथन यहाँ कथन- विस्तारके भयसे छोड़ा जाता है । सिर्फ ग्रहों के पूंजन - सम्बंध में दो श्लोक नमूने के तौर पर उद्धृत किये जाते हैं जिनमें लिखा है कि ' ग्रहों का पूजन करनेके बाद उन्हें बलि देनेसे, जिनेंद्रका अभिषेक करनेसे और जैन महामुनियोंके संघको दान देनेसे, नवग्रह तृप्त होते हैं और तृप्त होकर उन लोगों पर अनुग्रह करते हैं जो ग्रहोंसे. पीड़ित हैं। साथ ही, अपने किये हुए रोगोंको दूर कर देते हैं। यथा:-- •

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