Book Title: Granth Pariksha Part 02
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 110
________________ (१०२). देवताओंको दक्षिणा देने सोना, गौ और भूमि प्रदान करने तथा संपूर्ण ब्राह्मणों और श्रेष्ठ मुनियों आदिको भोजन खिलानेका भी उपदेश दिया है। और अन्तमें लिखा है कि उत्पात-शांतिके लिए यह विधि हमेशा करने योग्य है । ययाः " अरहंतसिद्धपूजा कायवा सुद्धभत्तीए ॥ ११ ॥ . हरिहरविरंचिआईदेवाण य दहियदुद्धण्हवणंपि । पच्छावलिं च सिरिखंडेय लेवधूपदीवसादीहिं ॥ १११ ॥ जंकिंचिति उप्पादं अगं दिग्धं च तत्यगासेइ ।' दत्तिणेदेजग्गं गावी भूमीउ विप्पदेवाणं ॥ ११२ ॥ मुंजावेजसचे वझे तवसीलसवलोयस्त। णित्ताबय यह सारय एस विहीं-सव्वकालत ॥ ११३॥ इस तरह पर, बहुत स्पष्ट शब्दोंमें, अजैन देवताओंके पूजनका यह विधान इस ग्रन्थमें पाया जाता है। और वह भी प्राकृत भाषामें, जिस भाषामें बने हुए ग्रंथको आजकलकी साधारण जैन-जनता कुछ प्राचीन और अधिक महत्त्वका समझा करती है। इस विधानमें सिर्फ उत्पातोंकी शांति के लिए ही हरि-हर ब्रह्मादिक देवताऑन पूजन करना नहीं बतलाया, बल्कि नित्य पूजन न किये जाने पर कहीं वे देवता अपनेको अपमानित न समझ बैठे आर इस लिए कुपित होकर जैनियोंमें अनेक प्रकारके रोग, मरी तथा अन्य उपद्रव खड़े न करदें, इस भयसे उनका नित्य पूजन करना भी ठहराया गया है । और उसे सुन्दर श्रेष्ठ पूजा-शोभना-पूजा-बयान किया है । आश्चर्य है कि इतने पर भी कुछ जैन विद्वान इस ग्रंथको जैनग्रन्थ मानते हैं। जैनग्रंथ ही नहीं, बल्कि श्रुतवलीका वचन स्वीकार करते हैं और जैनसमाजमें उसका प्रचार करना चाहते हैं ! अन्यी श्रद्धाकी भी हद हो गई !! यहाँ पर मुझे उस मनुष्यकी अवस्था याद आती है जो अपने घरकी चिट्ठीमें कित्ती कौतुकी

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