Book Title: Granth Pariksha Part 02
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 111
________________ (१०३) द्वारा यह लिखा हुआ देखकर, कि तुम्हारी स्त्री विधवा हो गई है फूट फूट कर रोने लगा था । और लोगोंके बहुत कुछ समझाने बुझाने पर उसने यह उत्तर दिया था कि 'यह तो मैं भी समझता हूँ कि मेरे जीवित रहते हुए मेरी स्त्री विधवा कैसे हो सकती है। परन्तु चिट्ठीमें ऐसा ही लिखा है और जो नौकर उस चिट्टीको लाया है वह बड़ा विश्वासपात्र है, इस लिए वह जरूर विधवा हो गई है, इसमें कोई संदेह नहीं; ' और यह कह कर वह फिर सिरमें दुहत्थड़ मारकर रोने लगा था। जैनियोंकी हालत भी आजकल कुछ ऐसी ही विचित्र मालूम होती है । किसी ग्रंथमें जैन सिद्धान्त, जैनधर्म और जननीतिके प्रत्यक्ष विरुद्ध कथनोंको देखते हुए भी, 'यह ग्रंथ हमारे शास्त्र-भंडारसे निकला है और एक प्राचीन जैनाचार्यका उस पर नाम लिखा हुआ है, बस इतने परसे ही, विना किसी जाँच और परीक्षाके, उस ग्रंथको मानने-मनानेके लिए तैयार हो जाते हैं, उसे साष्टांग प्रणाम करने लगते हैं और उस पर अमल भी शुरू कर देते हैं ! यह नहीं सोचते कि जाली ग्रंथ भी हुआ करते हैं, वे शास्त्रभंडारोंमें भी पहुँच जाया करते हैं और इस लिए हमें 'लकीरके फकीर न बनकर विवेकसे काम लेना चाहिए । पाठक सोचें, इस अंधेरका भी कहीं कुछ ठिकाना है ! क्या जैनगुरुओंकी-चाहे वे दिगम्बर हों या श्वेताम्बर-ऐसी आज्ञायें भी जैनियोंके लिए माने जानेके योग्य हैं ? क्या इन आज्ञाओंका पालन करनेसे जैनियोंको कोई दोष नहीं लगेगा ? क्या उनका श्रद्धान और आचरण बिल्कुल निर्मल ही बना रहेगा ? और क्या इनके उल्लंघनसे भी उन्हें नरक जाना होगा ? ये सब बातें बड़ी ही चक्करमें डालनेवाली हैं । और इस लिए जौनियोंको बहुत सावधान होनेकी जरूरत हैं । यहाँ पाठकों पर यह भी प्रगट कर देना उचित है कि इस अध्यायके शुरूमें भद्रबाहु मुनिका नामोल्लेख पूर्वक यह प्रतिज्ञावाक्य भी दिया हुआ है:

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