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(१०१) भोगवदीण य कामो किण्हो पुण सबलोयणासयरो। अरहतसिद्धबुद्धा जदीण णासं पकुवैति ॥ ८३॥ . "फुटिदो मंतियभदं अग्गीजालेण देसणासयरो। घसतेलरुहिरधारा कुणंति रोग णरवरस्स ॥ ८॥ मासेहिं तीयेहिं सब संति अप्पणो सन्चे।
जदि णवि कीरदि पूजा देवाणं भत्तिरायण ॥ ८८ ॥ इसके आगे उत्पातोंकी शांति के लिए उक्त कुबेरादिक देवताओंके पूज-- नका विधान करते हुए लिखा है कि 'ऐसी उत्पातावस्थामें ये सब देव गंध, माल्य, दीप, धूप और अनेक प्रकारके बलिदानोंसे पूजा किये जाने पर संतुष्ट हो जाते हैं, शांतिको देते हैं और पुष्टि प्रदान करते हैं । ' साथ. ही यह भी लिखा है कि, 'चूं कि अपमानित देवता मनुष्योंका नाश करते हैं और पूजित देवता उनकी सेवा करते हैं, इस लिए इन देवताओंकी नित्य ही पूजा करना श्रेष्ठ है। इस पूजाके कारण न तो देवता किसीका नाश करते हैं, न रोगोंको उत्पन्न करते हैं और न किसीको दुःख या संताप देते हैं । बल्कि अतिविरुद्ध देवता भी शांत
हो जाते हैं, या संताप देते हैं हैं, न रोगोंको
" मलेहिं गंधधूवेहिं पूजिदा बलिपयारदावेहि । तूसंति तत्य देवा संति पुर्हि णिवेदिति ।। ८९ ॥ अवमाणिया य णासं करति तह पूजिदा य पूजति । देवाण णियपुजा तम्हा पुण सोहणा भणिया ॥९॥ ण य फुवंति विणासं ग य रोग व दुक्खसंतावं ।
देवावि भइविरुद्धा हर्वति पुण पुज्जिदा संता ॥ ९१॥ इसके बाद कुछ दूसरे प्रकारके उत्पातोंका वर्णन देकर, सर्व प्रकारके उत्पातोंकी शांतिके लिए अर्हन्त और सिद्धकी पूजाके साथ हरि-हरब्रह्मादिक देवोंके पूजनका भी विधान किया है। साथ ही, ब्राह्मण