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" व्यवहारे तु प्रथमो द्वितीयः स्तैन्यकर्मणि। -
तृतीयों वालहत्यादौ धर्मलोपेऽन्तिमः स्मृतः॥ २४७ ॥ दंडविधानका यह नियम जगत्का शासन करनेके लिए कहाँ तक समुचित और उपयोगी है, इस विचारको छोड़कर, जिस समय हम इस नियमको सामने रखते हुए इसी खंडके अगले दंडविधान-संबंधी अध्यायोंका पाठ करते हैं उस समय मालूम होता है कि ग्रंथकर्ता महाशयने स्थान स्थान पर स्वयं ही इस नियमका उल्लंघन किया है। और इस लिए. उनका यह संपूर्ण दंड-विषयक कथन पूर्वीपर-विरोध-दोषसे दूषित है। साथ ही, श्रुतकेवली जैसे विद्वानोंकी कीर्तिको कलंकित करनेवाला है। उदाहरणके तौर पर यहाँ उसके कुछ नमूने दिखलाये जाते हैं:
"हामाकारौ च.दंडोऽन्यैः पंचभिः सम्प्रवर्तितः । पंचमिस्तु ततः शेषेर्थीमाधिकारलक्षणः ॥ ३-२१५ ॥ " कूपाद्रज्जु घटं वनं यो हरेस्तैन्यकर्मणा।
कशाविंशतिभिस्ताड्यः पुनीमाद्विवासयेत् ॥ ७-१२ ॥ इस पद्यमें कुएँ परसे रस्सी, घड़ा तथा वन चुरानेवालेके लिए २०. चाबुकसे ताड़ित करने और फिर ग्रामसे निकाल देनेकी सजा तजवीज की गई है। पाठक सोचें, यह सजा पहले नियमके कितनी विरुद्ध है और साथ ही कितनी अधिक सख्त है ! उक्त नियमानुसार चोरीके इस अपराधमें धनदंड (जुर्माना) का विधान होना चाहिए था, देहदंड या निवासनका नहीं।
" कुलीनानां नराणां च हरणे वालकन्ययोः । तथानुपमरत्नानां चौरो बंदिग्रहं विशेत् ॥ ७-१६ ॥ येन यज्ञोपवीतादिकृते सूत्राणि यो हरेत् । संस्कृतानि नपस्तस्य मासैकं बंधके न्यसेत् ॥ २ ॥