Book Title: Granth Pariksha Part 02
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

View full book text
Previous | Next

Page 96
________________ (८८) रखता है | जैसे साँप बिच्छू आदिसे डसा जाना, व्याघ्र आदिसे भक्षित होना, वृक्ष या मकान परसे गिरजाना, मार्गमें जाते हुए ठोकर खाकर गिर पड़ना, वज्रपातका होना, सींगवाले पशुका सींग लग जाना और स्त्रीके प्रसवका होना आदि । इन सब कारणोंमेंसे किसी भी कारणसे जो आकस्मिक मृत्यु होती है उसके लिए यह दंड विधान किया गया है: 3 " प्रायश्चित्तं - उपवासाः ५, एकभक्तानि विंशतिः २० कलशाभिषेकद्वयं २, पंचामृताभिषेकाः ५, लघ्वभिषेकाः पंचविंशतिः, आहारदानानि चत्वारिंशत्, गावौ द्वे २, घपला १०, पुष्पसहत्र १०००, संघपूजा नाद्याण (?) द्वयं, तीर्थयात्रा - कायोत्सर्गाः ६, वीटिका ताम्बूल ५० । " परन्तु इस दंडका पात्र कौन है ? किसको इसका अनुष्ठान करना होगा ? यह सव यहाँ कुछ भी नहीं बतलाया गया । जो शख्स मर चुका है उसके लिए तो यह दंड विधान हो नहीं सकता। इस लिए जरूर है कि मृतकके किसी कुटुम्बीके लिए यह सब दंड तजबीज किया गया है । परन्तु उस बेचारेने कोई अपराध नहीं किया और न मृतकका हि इसमें कोई अपराध था । बिना अपराधके दंड देना सरासर अन्याय है । इस लिए कहना पड़ता है कि यह प्रायश्चित्त नहीं बल्कि अन्याय और अधर्म है; श्रुतकेवली जैसे विद्वानोंका यह कर्म नहीं हो सकता । जरूर इसमें किसीका स्वार्थ छिपा हुआ है। गंध, फूल और पानोंके वीड़ों आदिको छोड़कर यहाँ पाठकोंके सन्मुख दो गाय भी उपस्थित हैं । ये भी दंडमें किसीको दान स्वरूप भेंट की जायँगी । यद्यपि जैनधर्ममें गौ-दानकी कोई महिमा नहीं है और न उसके देनेसे किसी पापकी कोई शांतिका होना माना जाता है। प्रत्युत अनेक जैनग्रंथोंमें इस दानको निषिद्ध जरूर लिखा है * । * यथाः- यया जीवा हि हन्यन्ते पुच्छरांगचुरादिभिः ॥ ९-५४ ॥ यस्यां च दुह्यमानायां तर्णकः पीव्यते तरं । तां गां वितरता श्रेयो लभ्यते न मनागपि ॥ ५५॥” - इति अभितगत्युपासकाचारः !

Loading...

Page Navigation
1 ... 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127