Book Title: Granth Pariksha Part 02
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 102
________________ (९४) " सहस्रांशावनुदिते यः कुर्याइन्तधावनम् । स पापी नरक याति सर्वजीवदयातिगः ॥ ३८ ॥ इसमें लिखा है कि 'जो मनुष्य सूर्योदयसे पहले दन्तधावन करता हैं वह पापी है, सर्व जीवोंके प्रति निर्दयी है और नरक जायगा । परन्तु उसने पापका कौनसा विशेष कार्य किया ? कैसे सर्व जीवोंके प्रति उसका निर्दयत्व प्रमाणित हुआ ? और जैनधर्मके किस सिद्धान्तके अनुसार उसे नरक जाना होगा ? इन सब बाताको उक्तः पद्यसे कुछ भी बोध नहीं होता । आगे पीछेके पद्य भी इस विषयमें मौन हैं और कुछ उत्तर नहीं देते। जैनसिद्धान्तोंको बहुत कुछ टटोला गया । कमफिलासोफीका बहुतेरा मथन किया गया। परन्तु ऐसा कोई सिद्धान्त-कर्म प्रवृत्तिका कोई नियम-मेरे देखने नहीं आया जिससे बेचारे प्रातःकाल उठकर दन्तधावन करनेवालेको नरक भेजा जाय । हाँ, इस ढूँड खोजमें, स्मृतिरत्नाकरसे, हिन्दूधर्मका एक वाक्य जरूर मिला है, जिसमें उपवासके दिन दन्तघावन करनेवालेको नरककी कड़ी सजा दी गई है । और इतने पर भी संतोष नहीं किया गया बल्कि उसे चारों युगोंमें व्याघ्रका शिकार भी बनाया गया है । यथाः " उपवासदिने राजन् दन्तधावनकृन्नरः। स पोरं नरकं याति व्याघ्रभक्षश्चतुर्युगम् ॥ .. -इति नारदः। भहुत संभव है कि ग्रंथकर्ताने हिन्दूधर्मके किसी ऐसे ही वाक्यका अनुसरण किया हो । अथवा जरूरत बिना जरूरत उसे कुछ परिवर्तन करके रक्खा हो । परन्तु कुछ भी हो इसमें संदेह नहीं कि संहिताका उक्त वाक्य सैद्धान्तिक दृष्टिसे जैनधर्मके बिल्कुल विरुद्ध है। ___ अद्भुतं न्याय। . . . (१२) पहले खंडके तीसरे अध्यायमें एक स्थान. पर ये दो पत्र पाये जाते हैं:

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