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कृपासे, जैनधर्मके साहित्यमें इस प्रकारके अनुदार विचारोंका प्रवेश हुआ है तबसे जैनधर्मको बहुत बड़ा धक्का पहुँचा है और उसकी सारी प्रगति रुक गई । वास्तवमें ऐसे अनुदार विचारोंके अनुकूल चलनेवाले संसारमें कभी कोई उन्नति नहीं कर सकते और न उच्च तथा महान बन सकते हैं।
पिण्डदान और तर्पण। (१०) पहले खंडके 'दायभाग ' नामक ९ वें अध्यायमें लिखा है कि 'दायग्रहण और पिंडदानमें दोहिते पोतोंकी बराबर हैं। । साथ ही, दूसरे स्थान पर पुत्रोंका विभाग करते हुए, जैनागमके अनुसार छह प्रकारके पुत्रोंको दाय ग्रहण और पिंडदानके अधिकारी बतलाये हैं। यथा:
दाये वा पिंडदाने च पौत्रैः दौहित्रकाः समाः ॥ २५॥ . . औरसो दत्तको मुख्यौ क्रीतसौतसहोदराः । तथैवोपनतश्चैव इमे गौणा जिनागमे ।
दायादाः पिंडदाश्चैव इतरे नाधिकारिणः ॥ ४ ॥ इस कथनसे ग्रंथकाने यह सूचित किया है कि पितरोंके लिए पिंडदानका करना भी जैनियों द्वारा मान्य है और यह जैनधर्मकी क्रिया है। परन्तु वस्तुतः ऐसा नहीं है। यह सब हिन्दू धर्मकी कल्पना है । हिन्दुओंके यहाँ इस पिंड दानके करनेसे पितरोंकी सद्गति आदि अनेक फल माने गये हैं और उनके लिए वे गया आदिक तीर्थों पर भी पिंड देने जाते हैं । जिसका जैनधर्मसे कुछ सम्बंध नहीं है। जैनसिद्धान्तके अनुसार न तो वह पिंड उन पितरोंको पहुँचता है और न उसके द्वारा उनकी सद्गति आदि कोई दूसरा कल्याण हो सकता है । इस लिए संहिताका. यह कथन जैनधर्मके विरुद्ध है। इसी प्रकार कुल-देवताओंका तर्पणविषयक कथन भी जैनधर्मके विरुद्ध है, जिसे ग्रंथकर्ताने इसी खंडके .पहले अध्यायमें दिया हैं। यथा: