Book Title: Granth Pariksha Part 02
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 103
________________ (९५) दंगेऽदज्येषु देयस्तु यशोनो दुरिताकरः । परत्र नरकं याति दाता भूपः कुटुम्पयुक् ॥ २४८ ॥ अदंज्यदंदन राजा कुर्वन्दच्यानदंडयन । लोके निन्दामवासोति परत्र नरकं व्रजेत् ॥ २४९ ॥ इन दोनों पद्योंमें निरपराधीको दंड देनेवाले राजाको और दूसरे पद्यमें अपराधीको छोड़ देनेवाले-क्षमा कर देनेवाले राजाको भी नरकका पान ठहराया है। लिखा है कि इस लोकमें उसकी निन्दा होती है जो प्रायः सत्य है-और मरकर परलोकमें वह नरक गतिको जाता है । नरक गतिका यह फर्मान इस विषयका कोई फाइनल आर्डर ( अन्तिम फैसला) हो. सकता है या नहीं ? अथवा यो कहिए कि वह नियमसे नरक गति जायगा या नहीं ! यह बात अभी विवादास्पद है । जैनसिद्धान्तकी दृष्टिसे यदि किसी निरपराधीको दंड मिल जाय अथवा कोई अपराधी दंडसे छुट जाय या छोड़ दिया जाय तो सिर्फ इतने कृत्यसे ही कोई राजा नरकका पात्र नहीं बन जाता है उसके लिए और भी अनेक बातोंकी जरूरत रहती है । परन्तु मनुका ऐसा विधान जरूर पाया जाता है। यथा: " अदल्यान्दंडयन् राजा दंख्याश्चैवाप्यदंडयन् । अयशो महदामोति नरकं चैव गच्छति ॥ ८-१२८ ॥ यह पय ऊपरके दूसरे पद्य नं० २४९ से बहुत कुछ मिलता जुलता है। और दोनोंका विषय भी एक है । आश्चर्य नहीं कि ऊपरका वह पद्य इसी पद्य परसे बनाया गया हो । परंतु इन सब प्रासंगिक बातोंको छोड़िए, और खास पहले पद्य नं० २४८ के 'कुटुम्बयुक' पद पर ध्यान दीजिए, जिसका अर्थ होता है कि वह राजा कुटुम्ब-सहित नरक जाता है। क्यों ? कुटुम्बियोंने क्या कोई अपराध किया है जिसके लिए उन्हें नरक भेजा जाय ? चाहे उन बेचारोंको राजाके कृत्योंकी खबर तक भी न हो,

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