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वामहस्तपयःपात्राज्जलमग्नकरांजलौ । कृत्वान्नममृतीकृत्य तर्पयेत्कुलदेवताः ॥ ९७ ॥
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ॐ ह्रीं ॐ वँ हूँ पयः इदमन्नममृतं भवतु स्वाहा । अन्नेन घृतसिचेन नमस्कारेण वै भुवि । त्रिस्र एवाहुतीर्दद्याद्भोजनादौ तु दक्षिणे ॥ ९८ ॥
-यह कथन भोजन समयका है - भोजनके लिए गोबरका चतुष्कोणादि मंडल बनाकर बैठने के बादका यह विधान है - इसमें लिखा है ' कि भोजनसे पहले, बायें हाथ के जलपात्र से अंजलिमें जल लेकर और उपर्युक्त मंत्र पढ़कर, अन्नका अमृतीकरण करे । और फिर उस घृतमिश्रित अन्नसे कुल देवताओंका इस प्रकारसे तर्पण करे कि उस अन्नसे तीन आहुतियें दक्षिणकी ओर पृथ्वी पर छोड़े ।' इसके बाद 'आपोऽशनका विधान है । अस्तु; यह सब कथन भी हिन्दूधर्मका कथन है और उन्हीं के धर्मग्रंथोंसे लिया गया मालूम होता है । जैन सिद्धान्तके अनुसार तर्पणका अन्नजल पितरों तथा देवताओं को नहीं पहुँच सकता और न उससे उनकी कोई तृप्ति होती है । हिन्दूधर्ममें तर्पणका कैसा सिद्धान्त है ? कैसी कैसी विचित्र कल्पनायें हैं ? जैनधर्मके सिद्धान्तों से उनका कहाँ तक मेल है ? वे कितनी असंगत और विभिन्न हैं ? और किस प्रकारसे कुछ कपट - वेषधारी निर्बल आत्माओंने उन्हें जैनसमाजमें प्रचलित करना चाहा है ? इन सब बातोंका कुछ विशेष परिचय पानेके लिए पाठकों को " जिनसेन - त्रिवर्णाचार' की परीक्षाका लेख देखना चाहिए !
दन्तधावनका फल नरक ।
( ११ ) संहिताके पहले अध्यायमें, दन्तधावनका वर्णन करते हुए, एक पद्य इस प्रकारसे दिया है:
१ यह लेख जैनहितैपीकी १० वें वर्षकी फायलमें छपा है ।